रविवार, 29 जुलाई 2018

वे बरसात के सुंदर दिन

बीत गए वे बरसात के सुन्दर दिन
झरा करती थीं बुँदियाँ नन्ही छिन छिन,
पखवाड़े महीने भी नहीं दिखते देवता सूरज
तनी रहती थीं घनी मेघ की चादर निशि दिन।।

खेत मेड़ों पर वीर बहुटियों की मखमल,
कच्चे आँगन में रेंगते केंचुए रलमल,
गिजाई गलियों में घासों पे गिज़ गिज़ करती,
मेढकियोँ   के संग  पोखर में मेढ़क चंचल।।

रात-रात भर नर मेढकों की टर टर
उधर आसमा से बुँदियाँ झर- झर
उतर आए शिवग्रीवा से नाग विष धर
काटकर मेड़ों को बज रहा पानी भर भर।।

मेड़ों पे उगी मकियाँ छतों पर गगनधूर
कुकुरमुत्ते कूड़े पर झुंड भरे  गुरूर
कच्ची दीवारों मुँडेरों  पनारों पर मखमल
बहा करते नदी नाले  यौवन से पूर।

बाजरे अरहर के खेतों में भरा पानी
धूप निकली तो गल गए पौधे हानी
निकालना पड़ रहा है पानी फ़सल से बाहर
रात-रात भर टपक रहे छ्प्पर छानी।

छतें कच्ची टपकता टपका टप टप
खेल रहे उधर बच्चे आँगन में छप छप
नाव कागज़ की बना तैराते रहे पानी में
नहा रहे नग्न बदन भले छूटे कंप कंप।

इधर से उधर सरकाते रहे खटिया अपनी
इधर टपका तो उधर सरकी खटिया अपनी
खाट सरकाते गुज़र गई बरसात की रात
कोई गिला शिकवा भी नहीं कि भीगी खटिया अपनी।

ओढ़ बोरी को निकल पड़ा किसान वहाँ
आधी रात में ही कटी न हो मेड़ जहाँ
निकल न जाए कहीं भरे खेत से पानी
बांध धोती को कमर में  चिंता थी वहाँ।

चमकती बिजली गड़गड़ाते घनघोर मेघ
कांप जाता था हिया भीगी थी देह
लबालब तलैया तालाब रास्ते दगरे
झींगुरों की झंकार रात्रि -सन्नाटा बेध।

चिपकती हुई साड़ी में रोप रहीं थीं धान
 ठंडक न कंपन न देह गाढ़ा परिधान 
कन्धे से मिला कंधे चलती पति संग
 भोजन ब्यालू का भी करतीं इंतजाम।

उछलते कूदते बच्चे नहाते नंगी देह सभी
न सर्दी की शिकायत न ज़ुकाम होता था कभी
फटे कपड़ों में ही चले जाना विद्यालय
भीगते जाना औ' आना बिना छाते के सभी।

बोरियाँ ओढ़े छिपाए बस्ते बगलों में
हो गए मस्त रस्ते में देख बगलों में
केंचुए कीड़े खाते हलों के पीछे दौड़ते बगले
चील कौवे भी आहार ढूंढते संग बगलों में।

रात में पंखधारी दीमक चींटे सूर्यास्त हुआ
दीप की लौ पे परवाना जीवनास्त हुआ
प्रेम की ख़ातिर मर जाने का नाम परवाना
कीड़े मकोड़ों का जहाँ पावस -मस्त हुआ।

कोई रपटा कोई फिसला कोई सराबोर हुआ,
रिमझिमाती बरसती बुँदियाँ में भोर हुआ
न कहीं सूरज न खिली धूप की गुनगुन
गली आँगन में किलकते  बच्चों का शोर हुआ।

कहाँ गईं वे बरसातें  रातें वे बरसते दिन
अब तो जवानी में ही बुढ़ापे के ये दिन
न झर झर न कलकल न मेघ बिजली पानी
लौट नहीं पाएंगे शुभम, अब वे हर्षते दिन।।

💐शुभमस्तु !

✍🏼रचयिता ©
डॉ.भगवत स्वरूप शुभम

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