कुछ लोगों के लिए
राजनीति एक पैजामा है,
जो ऊपर से तो एक
पर थोड़ा आगे बढ़ने पर
द्वेत है,
यानी ऊपर अद्वेत
नीचे द्वेत ,
ये द्वेत अद्वेत का
चक्कर बड़ा विकट है,
द्वेत अद्वेत के
अति निकट है।
इसमें घुसूं
या उसमें
यही सोचना
समझना है ,
आखिर तो
कुर्सी की
मंजिल तक
जा पहुंचना है।
पैजामे के एक
खोल में जा
घुसना है ,
जरूरत पड़ी तो
लौटकर दूसरे
खोल में जा पहुंचना है,
एक से दूसरे की यात्र
यही राजनीति है,
जहाँ न कोई राज है
न नीति है,
ये अपनी अपनी
मनप्रीति है।
एक और राजनीति है
पेटीकोट राजनीति,
बस एक बार
घुस गए तो
घुस गए,
फिर नहीं निकलना है,
कोई पैजामा थोड़े ही है
जो एक खोल से
दूसरे की यात्रा करना है,
कोई स्थायित्व ही नहीं,
राजनीति हो तो
पेटिकोट राजनीति
जिसमें स्थायित्व भी
आराम भी
इधर से उधर
अंदर ही अंदर
चाहे नाचो कूदो
धमाल करो या
कोई काला या
सफेद कमाल करो,
हाँ , भई
राजनीति करो तो
पेटिकोट राजनीति करो,
वरना पैजामे की
राजनीति वाले तो
चुल्लू भर चाय में
अपना उद्धार करो।
हाँ , पैजामा राजनीति
में अगर बर्वादी है
तो आज़ादी भी है,
अगर इधर से मन भर
जाए तो उधर सरक जाओ
और यदि मिल जाए
मंत्री पद
फिर क्या बल्ले ही बल्ले!!
पेटिकोट वाले रह जाते
हैं निठल्ले।
हाँ , पतिव्रता की तरह
पवित्र है पेटिकोट राजनीति
पर क्या पतिव्रत ही रखना
होता तो
राजनीति में ही क्यों जाते?
क्या और कोई
मंज़िल न थी!
ना भाई हमें तो
पैजामा राजनीति ही
सुहाती है,
जिसमें कुर्सी की मंजिल
जल्दी मिल जाती है।
यहाँ कोई सती
थोड़े होना है !
हमें तो बस
जल्दी से जल्दी
नाम और नामे की
तिजोरी पाना है।
अब तो ही तय कर लीजिए
कि
कौन पैजामा (पैरों का जामा अर्थात वस्त्र)
की राजनीति में
अपनी टाँगें फंसाये है
और कौन
पेटिकोट राजनीति में
आकंठ धँसाये हैं,
मैं किसी 'आडवाणी,'
या 'अजित' का नाम लूँ।
पेटिकोट राजनीति समर्पण
की है,
और पैजामा राजनीति
मौका -दर्शन की है।
जैसी चले बयार तबहिं
तेसों रुख कीजै।
पेटिकोट की पराधीनता
में मत छीजे।
शुभमस्तु।
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"
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