नया वर्ष आने वाला है , लेकिन हमारे कुछ अंग्रेज़ीदां भारतवासी इसका विरोध पानी पी पी कर रहे हैं। लेकिन जब वे पेंट शर्ट और टाई से सज संवर कर जुल्फों में महकता हुआ तेल बॉडी में परफ्यूम और पैरों में बूट डालकर निकलते हैं तो ये क्यों भूल जाते हैं कि ये भारतीयों की वेश भूषा नहीं है। उनके शादी के कार्ड ईसा वर्ष के अनुसार ही डेट, मंथ और ईयर छाप कर मुद्रित किए जाते हैं। केवल पंडित जी की पत्रा में विक्रमी संवत की तिथियां देखी जाती हैं, शेष सभी कार्यक्रम प्रीतिभोज, मंडप, पाणिग्रहण, सितारों की छांव में विदाई , बारात प्रस्थान , वधू आगमन,तिलक,लग्न, भीगी पलकें आदि सभी ईसवी सन के अनुसार मुद्रित किए जाते हैं। उनके बच्चों के जन्मदिन , स्कूल में प्रवेश , परीक्षा , रिजल्ट आदि भी आषाढ़ सुदी सप्तमी , चैत्र वदी एकादशी से सुनिश्चित नही किए जाते। उनके आलू को कोल्ड स्टोरेज में आलू रखने , निकालने , बेचने आदि की तारीख भी श्रावण शुक्ल सप्तमी आदि नहीं होती। कहीं यात्रा में जाते समय कोई ट्रेन पौष माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी के अनुसार नहीं चला करती। बसों का टाइम टेबिल भी ईसवी सन व डेट के अनुसार ही होता है।
जब हमारे जीवन में सब कुछ (लगभग 99.99%) ईसवी सन और तिथियों से ही निर्धारित है और शौक से उसका निवाह भी कर रहे हैं तो फिर ये विरोध के लिए विरोध क्यों ??? इससे आपकी अहमियत में चार चाँद नहीं लगते बल्कि आपकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज ही सुनाई पड़ती है। मज़े की बात तो ये है कि जब आप जीवन के लगभग हर क्षेत्र में जिस ईसवी वर्ष की हर तारीख को अनिवार्य अंग माने हुए हैं तो उस के आगमन पर उसको सेलिब्रेट करने में अपनी अहम भावना का प्रदर्शन क्यों करते हैं। बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाएंगे और अंग्रेज़ी वर्ष का विरोध करेंगे ? वाह री निष्ठा !!वाह रे ड्रामेबाज लोगों!!!ये सब क्या है ? बेटियाँ जीन्स पहनेंगी , बेटे भी जीन्स धारण करेंगे ,पर खुद इतने अधिक दुराग्रही हो जायेगें कि लोगों ये दिखाने के लिए कि कितने अधिक 24 कैरेट के बने हुए हैं। पीतल होकर ये सोने का ढोंग करना कोई अच्छी बात नहीं है मित्रो!!!
आपको मालूम होना चाहिए कि आज के युग में कहीं कोई विशुद्धता नहीं है। सब कुछ मिश्रित हो गया है। जब हमारे देश में इस्लस्मिक , ब्रिटानिक और न जाने कितनी सभ्यता और संस्कृतियों का आगमन हुआ ,तो उन सबका प्रभाव इस देश की सभ्यता औऱ संस्कृति पर पड़ना ही था, जो बराबर पड़ा है ,और पड़ता रहेगा। आप दावा नही कर सकते कि हमारी व्यवहारिक संस्कृति और सभ्यता कितनी अधिक विशुध्द है! सब कुछ घालमेल हो चुका है , हो रहा है। जिसको जो रुच रहा है , कर रहा है , अपना रहा है। सब कुछ स्वेच्छया हो रहा है , देखादेखी हो रहा है , कुछ फ़िल्मों से आ रहा है तो कुछ इल्मों से अपनाया जा रहा है।अनुकरण , नकल ,परम्परा हमें सिखाते हैं। और लोग हैं कि विरोध के नाम पर विरोध का झंडा ऊंचा करना चाह रहे हैं। ये सब कुछ विचारणीय है। इसलिए विरोध के नाम पर विरोध करना छोड़ें। पहले अपने बदन के कपड़े, जिनगी के लफड़े, और घर के लड़कियां और लड़के की ओर देखें कि वहाँ कितनी भारतीयता का झंडा फहरा रहा है! पहले झाँकें अपने गरेबाँ, बाद में देखें
करीबाँ।
इति शुभम।
✍🏼 डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"
जब हमारे जीवन में सब कुछ (लगभग 99.99%) ईसवी सन और तिथियों से ही निर्धारित है और शौक से उसका निवाह भी कर रहे हैं तो फिर ये विरोध के लिए विरोध क्यों ??? इससे आपकी अहमियत में चार चाँद नहीं लगते बल्कि आपकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज ही सुनाई पड़ती है। मज़े की बात तो ये है कि जब आप जीवन के लगभग हर क्षेत्र में जिस ईसवी वर्ष की हर तारीख को अनिवार्य अंग माने हुए हैं तो उस के आगमन पर उसको सेलिब्रेट करने में अपनी अहम भावना का प्रदर्शन क्यों करते हैं। बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाएंगे और अंग्रेज़ी वर्ष का विरोध करेंगे ? वाह री निष्ठा !!वाह रे ड्रामेबाज लोगों!!!ये सब क्या है ? बेटियाँ जीन्स पहनेंगी , बेटे भी जीन्स धारण करेंगे ,पर खुद इतने अधिक दुराग्रही हो जायेगें कि लोगों ये दिखाने के लिए कि कितने अधिक 24 कैरेट के बने हुए हैं। पीतल होकर ये सोने का ढोंग करना कोई अच्छी बात नहीं है मित्रो!!!
आपको मालूम होना चाहिए कि आज के युग में कहीं कोई विशुद्धता नहीं है। सब कुछ मिश्रित हो गया है। जब हमारे देश में इस्लस्मिक , ब्रिटानिक और न जाने कितनी सभ्यता और संस्कृतियों का आगमन हुआ ,तो उन सबका प्रभाव इस देश की सभ्यता औऱ संस्कृति पर पड़ना ही था, जो बराबर पड़ा है ,और पड़ता रहेगा। आप दावा नही कर सकते कि हमारी व्यवहारिक संस्कृति और सभ्यता कितनी अधिक विशुध्द है! सब कुछ घालमेल हो चुका है , हो रहा है। जिसको जो रुच रहा है , कर रहा है , अपना रहा है। सब कुछ स्वेच्छया हो रहा है , देखादेखी हो रहा है , कुछ फ़िल्मों से आ रहा है तो कुछ इल्मों से अपनाया जा रहा है।अनुकरण , नकल ,परम्परा हमें सिखाते हैं। और लोग हैं कि विरोध के नाम पर विरोध का झंडा ऊंचा करना चाह रहे हैं। ये सब कुछ विचारणीय है। इसलिए विरोध के नाम पर विरोध करना छोड़ें। पहले अपने बदन के कपड़े, जिनगी के लफड़े, और घर के लड़कियां और लड़के की ओर देखें कि वहाँ कितनी भारतीयता का झंडा फहरा रहा है! पहले झाँकें अपने गरेबाँ, बाद में देखें
करीबाँ।
इति शुभम।
✍🏼 डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें