गुरुवार, 12 जुलाई 2018

शिक्षा का व्यवसायीकरण

  ज्यों -ज्यों शिक्षा का व्यवसायीकरण प्रगति पर है,  त्यों -त्यों देश का पतन हो रहा है।बेरोजगारी ,अपराधवृत्ति, देशभक्ति , प्रतिभा - पलायन और बरबादी बढ़ रही है। शिक्षा प्रदान करना एक सेवा - कार्य है, धन्धा नहीं। आज शिक्षा के विद्यालय और महाविद्यालय शिक्षालय न होकर कारखाने बनकर रह गए हैं। बड़े - बड़े भवन, पत्थर और टाइल्स की चकाचौंध ,  सुंदर -सुंदर बगीचे देखकर ऐसा लगता है कि हम किसी शिक्षालय में नहीं , किसी पिकनिक-स्पॉट पर आ गए हैं।ये सारी चमक - दमक शिक्षा प्रदान करने के लिए नहीं है , केवल इसलिए है कि इनसे आकर्षित होकर अभिभावक और विद्यार्थी रूपी मधुमक्खी आए और इनकी चमक - दमक के लासे से चिपक जाए।
   बेसिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक यही हाल है।मोटी -मोटी शुल्क वसूलने के बाद ये माना जाता है कि यहाँ पढ़ाई भी उच्च स्तर की होती होगी। जब वहाँ योग्य और प्रशिक्षित शिक्षक ही नहीं होंगे   तो क्या ये चमक -दमक और बाग - बगीचे और ऊँची अट्टालिकाएं पढ़ाई कराएंगी? वहाँ पर ऐसे शिक्षक रखे जाते हैं जो कम से कम लेकर अपने बेरोजगार होने की कमी को पूरा करें। जब शिक्षक को ही ज्ञान नहीं तो वह बच्चों को क्या ज्ञान दे पाएगा? वहाँ तो गंगा अपने घर से निकलेगी और कुएँ तक जाएगी , गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक  नहीं।
   उच्च शिक्षा के निजी कॉलेजों का हाल ये है कि भवन -स्वामी , जिसे कॉलेज -स्वामी भी कहा जा सकता है, क्योंकि उन्होंने लाखों करोड़ों की लागत इसलिए नहीं लगाई कि वे योग्यतम प्रतिभाओं को निकालें , उन्हें तो अपनी बिल्डिंग की कीमत औऱ उससे जो पैसा पैदा हो जाए , यही एकमात्र लक्ष्य है। चरित्र औऱ संस्कार निर्माण की तो कहीं दूर दूर तक कोई बात नहीं होती। अब कपड़े , जूते , किताबें,  बस्ते, पीठलादु बैग, टाई, बेल्ट ,पेन , पेंसिल और अन्य स्टेशनरी क्रय करने के लिए बाज़ार नहीं जाना, क्योंकि प्रकाशकों से  सांठगांठ के बाद आखिर 50 पर्सेंट कमीशन भी तो उन्हीं को लेना है। जो कमीशन उन्हें मिल रहा है, वह किसी दुकानदार को क्यों मिले? जब उन्होंने शिक्षा की दुकान खोली है तो शिक्षा मिले या न मिले , किताबों आदि का कमीशन जरूर मिले। इस प्रकार ये स्कूल एक साथ ही बुकसेलर , स्टेशनर, बजाज , शु सेलर,  सभी धंधे एक ही छत के नीचे हो गए।अभिभावक औऱ विद्यार्थीओं को भी सुविधा , भटकाव से बचाव औऱ अपनी मोटी कमाई , आख़िर अपना विद्यालय खोलने का उद्देश्य भी तो बहुआयामी है। अब कमी रह गई तो बस इतनी कि कपड़े धोने , जूतों पर पोलिश करने , यूनिफार्म पर प्रेस करने, फ़टी कॉपी किताबों की मरम्मत औऱ बाइंडिंग करने  की दुकानें भी चालू कर दी जाएं।
   पढ़ाई का आलम ये है कि होम वर्क के नाम पर सारी पढ़ाई मम्मी पापा के जिम्मे। वे यदि पढ़े लिखे नहीं हैं , अथवा वे इसके लिए अपनी व्यस्ततावश समय न निकाल सकें, तो हो गई पढ़ाई! कुछ विद्यालयों में तो बाकायदे  माँ - बाप का इंटरव्यू लिया जाता है कि उन्हें अंग्रेज़ी आती है या नहीं। यदि नहीं आती तो प्रवेश  नहीं होगा क्योंकि उनके टीचर तो पहले से ही अयोग्य हैं। यदि योग्य औऱ प्रशिक्षित शिक्षकों को रखा जाएगा , तो उन्हें अधिक वेतन देना पड़ेगा! जिसे वे देना नहीं चाहते। क्योंकि ये शिक्षा के शो रूम इसलिए नहीं खोले कि सारा पैसा टीचर ले जायें!
    इस प्रकार हमारे देशवासी किस भारत का निर्माण करना चाहते हैं , अब सब कुछ समझ में आ गया है। किन्तु अभिभावक की मजबूरी है कि उसे बच्चे पढ़ाने हैं और फिर जाएं तो जाएँ कहाँ? इस प्रकार हमारी आपकी सबकी मजबूरी का अनुचित लाभ पूँजीपतिओं द्वारा उठाया जा रहा है। चरित्र निर्माण से किसी का कोई संबंध नहीं है। बिज़निस और चरित्र का भला क्या सम्बन्ध??? कोई चरित्र का ठेका थोड़े लिया है? वे चाहे चोर , डाकू, स्मगलर, बैंक रोबर, राहजन, जेबकट , नेता , डॉक्टर , वकील कुछ  भी बनें ! उन्हें क्या? ये कोई देशभक्ति के ढालने के सांचे नहीं हैं।
    शिक्षा का व्यवसायीकरण देश, समाज और नई पीढ़ी को कहाँ ले जा रहा है , किसी से भी छिपा नही है। फिर भी हमारी आँखों पर पट्टी बंधी हुई है। गार्जियन सो रहा है। बच्चा किस्मत को रो रहा है। औऱ ये पूंजीपति वर्ग देश में गुलामी के बीज बो रहा है। नेता नहीं देखता कि ये क्या हो रहा है!! सत्ता और सत्ताधारी क्या सोच रहे हैं , बस उनकी कुर्सी बची रहे। चाहे देश में रात दिन खलबली मची रहे।

💐शुभमस्तु!
✍🏼लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभं"

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