रविवार, 22 जुलाई 2018

घने जंगल

घने   जंगल    सिमटते  जा रहे हैं
आदमी   के   बुरे  दिन आ रहे हैं।

वर्षों की तपस्या से लगे थे वृक्ष जो
आदमी के हाथ  कटते  जा रहे हैं।

ईंट पत्थर के मकां से मोह  इतना
कैद  कमरों हुए  हम  जा  रहे  हैं।

ए सी ,कूलर ,फैन की कृत्रिम हवा
मर्ज़ तन  में रोज़ बढ़ते  जा रहे हैं।

प्लास्टिक रबर के पुष्प बेलें छा  गए
घर की  शोभा  बढ़ाए  जा  रहे हैं।

कलकल सुहातीअब न नदियों की हमें
लीड  कानों में  लगाए  जा  रहे हैं।

ज़िंदगी नकली जिए जाते हैं हम अब
नित प्रकृति से दूर हटते जा रहे हैं

सबको खिलौने की बड़ी चाहत बढ़ी
अपने सीने से लगे  बतिया रहे हैं।


पेड़ पौधों  की   दवा   होती  हवा
नित नए बहु मर्ज़ बढ़ते जा रहे हैं।

सिर्फ अपना ही "शुभम" चिंतन प्रबल
निज स्वार्थ में जन लिप्त होते जा रहे हैं।

💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

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