सोमवार, 30 जुलाई 2018

हमारी परीक्षा प्रणाली

   कोई जरूरी नहीं कि आप मेरी बात से सहमत हों ,क्योंकि 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना'। लेकिन यह बात विचारणीय अवश्य है कि वर्तमान में  यौवन के उभार पर चढ़ रही हमारी 'वस्तुनिष्ठ परीक्षा प्रणाली'देश के वर्तमान और भविष्य के लिए एकदम उचित नहीं है। इससे ज्ञान का विस्तार नहीं , विनाश हो रहा है। अंततः ये प्रणाली लाई ही क्यों गई? इस पर विचार करना बहुत जरूरी है। मेरी अपनी मान्यता ये है कि मानव की सुविधाभोगी और शॉर्ट कट चलने की  प्रवृत्ति का परिणाम है ये वस्तुनिष्ठ परीक्षा प्रणाली , जिससे बड़े -बड़े आई ए एस , आई पी एस और पी सी एस आदि उच्च पदासीन हो रहे हैं। मैं उनकी योग्यता पर कोई प्रश्न चिन्ह लगाने नहीं जा रहा , किन्तु कुल मिलाकर योग्यता परीक्षण का ये तरीका उचित नहीं है। इसी पैटर्न पर स्नातक और परास्नातक स्तर पर भी ऑब्जेक्टिव प्रश्न पूछने की बाढ़ आ  गई है।
   यदि 100 प्रश्नों में से कोई निरक्षर व्यक्ति को भी हल करने को दे दिया जाए तो यदि वह अनजाने ही केवल A , या केवल B या केवल C या केवल D पर ही चिन्हित कर दे तो 35-40 अंक तो  ले ही आएगा। क्या पढ़ाई लिखाई का  मतलब केवल इतना ही है? इससे  कौन से ज्ञान का परीक्षण हो गया? आदमी शॉर्टकट  चलना ज्यादा पसंद करता है। तो क्या शिक्षा में भी , ज्ञान अर्जन में  ही शॉर्टकट चलेगा?
   शिक्षा नीति की गाड़ी का एक्सिलरेटर सियासत के हाथ में है। सियासत और शिक्षा एकदम विरोधाभासी हैं।सियासत नहीं चाहती कि लोग शिक्षित बनें। केवल नारे , बैनर और कोरे प्रचार प्रसार से शिक्षा का विकास नहीं
होने वाला।यदि लोग पढ़ लिख कर योग्य बन गए तो इनकी आवभगत, रैली ,थैली, माला, शॉल, का इंतज़ाम कौन करेगा ? जिसकी जितनी लम्बी पूँछ वह उतना बड़ा सियासतदां। योग्य और स्वावलम्बी व्यक्ति किसी का पिछलग्गू नहीं होता। इसलिए  अल्प शिक्षित , निरक्षर या इसी प्रकार का व्यक्ति उनकी पूँछ की लंबाई  बढ़ाता है। इसीलिए शॉर्टकट परीक्षा पद्धति पर जब विश्वविद्यालयों की एकेडमिक कमेटियां बैठती हैं तो वे भी उन्हीं के इशारे पर निर्णय लेकर वस्तुनिष्ठता को ही  संस्तुत करती हैं। टीचर को पढ़ाना न पड़े, स्टूडेंट को कालेज आना न
पड़े , यही शिक्षा व्यवस्था सबसे अच्छी।
   जब तक विद्यार्थी को गहन अध्य्यन न कराया जाए, तबतक कोरा किताबी ज्ञान किस मतलब का? कालेजों में लैब नहीं , लेब हैं तो समान नहीं ,  सामान है तो दिखावटी और निष्प्रयोजनिय। शिक्षक नहीं ,  शिक्षा नहीं। केवल
कोरी खानापूर्ति।किसी को डिग्री का लालच, किसी को विवाह हेतु दहेज वृद्धि के पट्टे की  जरूरत? न कोई पढ़ाना चाहे औऱ न कोई पढ़ना चाहे। अभिभावक औऱ माता पिता खुश कि बिना स्कूल कालेज भेजे ही डिग्री मिल जाएगी। उसे  भी सब शिक्षा शॉर्टकट से ही मिलने में खुशी है।  विद्यार्थी को कालेज में पहले दिन का मुहूर्त तब निकलता है जब वह प्रेक्टिकल या थ्येरी के पेपर देने जाना हो। उसमें भी मजे की बात ये कि उसे पूछना पड़ता है कि किधर जाना है ? उससे भी बड़े मजे की बात ये  कि उसे अपने विषय की स्पेलिंग भी नहीं आती। ऐसे खड़ा है जैसे लड़की वाले  पूँछ रहे हैं -'लला  कौन सी क्लास में पढ़त हौ'। एकदम सन्नाटा। जैसे अभी बेचारे ने अभी बोलना सीखा भी नही हो! रोटी को ओटी औऱ पानी को पप्पा कहता हो। 
   ये सब किसकी देन है। और उसका परिणाम भोग रही है नई पीढ़ी। ये सब सियासत और सियस्तग्रस्त शिक्षा व्यवस्था का दोष है। प्रश्नपत्रों की संख्या घटाते जाना, वस्तुनिष्ठता बढ़ाते जाना-ये  सभी शिक्षा के विनाश के लक्षण हैं। इतनी मोटी मोटी पोथियाँ क्या इसी लिए हैं?  वर्णनात्मक परीक्षा पद्धति ही सर्वश्रेष्ठ है। ये ग्रेजुएट किस कम्ब
के, जिन्हें एक आवेदन पत्र भरना नहीं आता, लिखना नहीं आता, अपना नाम पता तक सही सही नहीं लिख सकते, किसी भी विषय पर 10 पंक्तियाँ तक नहीं लिख  सकते। बैंक में पैसे निकालने के लिए स्लिप भी भरने में पसीने छूट जाते हैं। ये हाल है हमारी शिक्षा का। फिर अमेरिका और पशिचमी शिक्षा से कैसे होड़ ली जा सकती हैं?फिर क्यों न प्रतिभा पलायन हो। शिक्षाविदों को राजनीतिक कुंडली से बाहर आने की न समझ है न समय है। वे भी लकीर के फकीर बनकर शिक्षा के विनाश के प्रमुख  कारक बने हुए हैं ।

शिक्षा   का पतन
इस देश का पतन
नई पीढ़ी का पतन
भविष्य का पतन।

💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

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