जीजी और जीजाजी बहुत प्यारे, मनभावन और उमंग -उत्पादक शब्द हैं।' जीजी 'अर्थात 'प्रकृति' और 'जीजा' अर्थात पुरुष। इन्ही दोनों के संयोग से सृष्टि का सृजन होता है। 'जीजी' शब्द में मानो बार - बार कहा कहा जा रहा हो कि (तू) जी जी , तू जिएगी तो सृष्टि की सर्जना सजेगी, वरना तेरे बिन सृष्टि कहाँ? सृजन कहाँ औऱ कैसे ? तू ही वह कारक है जिससे इस संसार और मानव सृष्टि का सफ़ल शृंगार होना है , हो रहा है औऱ होगा । इसलिए तू जी जी। इस सृष्टि की कारणरूपा तू जी। उधर कानों में एक चंचल माधुर्य घोलने वाला शब्द 'जीजाजी' , कितना आकर्षण ,आत्मीयता और लगाव भरा हुआ है इसमें। पड़ते ही कानों में में एक रस घुल जाता है। इन सम्बोधनों के लिए कोई और नहीं बहन , साली और साले का भी सृजन हुआ है , वरना इनके बिना कौन जीजी और जीजाजी को अस्तित्व में रखता!
जीजी है इसलिए जीजा भी है। 'जीजा ' यानी तू भी जीता रह, जब तुम नहीं तो जीजी का क्या? जीजी है तो जीजा तो आवश्यक ही नहीं ,अपरिहार्य है। ये बात अलग है कि जीजी को जीजी और जीजा को जीजाजी कहने वाला/वाली नहीं हों। फिर भी उन दोनों का अस्तित्व है, लेकिन वह रसमयता औऱ निश्छल स्नेहिलता न रह पाए।इसलिए साली औऱ साले का होना भी ठीक वैसे ही है जैसे मोदक में घृत होने से स्वाद अगणित गुणा बढ़ जाता है। छोटे भाई और बहनें तो बड़ी बहनों को जीजी कहते ही हैं , लेकिन वह एक सामान्य प्रक्रियागत सम्बोधन है ,उसमें विशेषत्व का समावेश उस वक़्त होता है , जब जीजी का विवाह हो जाता है और वह जीजाजी सम्बोधनधारी को अपने जीवन में ऐसे जोड़ लेती है जैसे माधुर्य में स्नेहिलता का समावेश। वे एक दूसरे के अभिन्न पूरक बन एक नए परिवार , नए संसार , नए विचार और नए संस्कार को जन्म देते हैं। जीजी और जीजाजी - क्या ही रसभरे , मदभरे , हरे हरे संबोधन हैं।
आज के युग में अन्य शब्दों की तरह जीजाजी शब्द का अर्थ ह्रास हुआ है। जैसे दादा कितना आदरणीय और सम्मानजनक शब्द था , लेकिन अर्थ - पतन के इस युग में वह भी गुंडों लफंगों के लिए इस्तेमाल होने लगा है। इसी तरह जीजाजी का शॉर्टकट हो गया :जीजू। भला जो रस और आनंद की अनुभूति जीजाजी शब्द से होती है , वह आदरानुभूति जीजू में कहाँ? जैसे कानों में रस भर दिया गया हो। विपरीत लिंग मुखारविंद से सुनने को मिले तो कहना ही क्या! एक अपनत्व, स्नेहिलता , सम्मान और न जाने कितनी गूढ़ता का वाचक है 'जीजाजी'। औऱ अब तो हद ही हो गई , उसके अंग्रेजीकरण ने शब्दार्थ और उसके निहितार्थ का सत्यानाश ही कर दिया , नए जमाने के साले जीजाजी को जीजू भी नहीं भाई साहब कहने लगे। भला रिश्ते क्यों न ठंडे पड़ें ! सब आत्मीयता ही खत्म हो गई। ऐसे कर दिया जैसे जैसे किसी सड़क पर चलते राहगीर से कह रहे हों : ए भाई! जरा हट के चलो। रस में नीरसता घोलने की की सीमा का अतिक्रमण ही कर दिया। रसमयता भंग हो गई। नया जमाना क्या कुछ नहीं कर दे ! रिश्तों को जिंदा रखिए , यदि जीजी और जीजाजी को जिंदा रखना है। तभी 'जीवन' , जो 'जीने' का 'वन ' है , बचेगा।
💐शुभमस्तु !
✍🏼लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
जीजी है इसलिए जीजा भी है। 'जीजा ' यानी तू भी जीता रह, जब तुम नहीं तो जीजी का क्या? जीजी है तो जीजा तो आवश्यक ही नहीं ,अपरिहार्य है। ये बात अलग है कि जीजी को जीजी और जीजा को जीजाजी कहने वाला/वाली नहीं हों। फिर भी उन दोनों का अस्तित्व है, लेकिन वह रसमयता औऱ निश्छल स्नेहिलता न रह पाए।इसलिए साली औऱ साले का होना भी ठीक वैसे ही है जैसे मोदक में घृत होने से स्वाद अगणित गुणा बढ़ जाता है। छोटे भाई और बहनें तो बड़ी बहनों को जीजी कहते ही हैं , लेकिन वह एक सामान्य प्रक्रियागत सम्बोधन है ,उसमें विशेषत्व का समावेश उस वक़्त होता है , जब जीजी का विवाह हो जाता है और वह जीजाजी सम्बोधनधारी को अपने जीवन में ऐसे जोड़ लेती है जैसे माधुर्य में स्नेहिलता का समावेश। वे एक दूसरे के अभिन्न पूरक बन एक नए परिवार , नए संसार , नए विचार और नए संस्कार को जन्म देते हैं। जीजी और जीजाजी - क्या ही रसभरे , मदभरे , हरे हरे संबोधन हैं।
आज के युग में अन्य शब्दों की तरह जीजाजी शब्द का अर्थ ह्रास हुआ है। जैसे दादा कितना आदरणीय और सम्मानजनक शब्द था , लेकिन अर्थ - पतन के इस युग में वह भी गुंडों लफंगों के लिए इस्तेमाल होने लगा है। इसी तरह जीजाजी का शॉर्टकट हो गया :जीजू। भला जो रस और आनंद की अनुभूति जीजाजी शब्द से होती है , वह आदरानुभूति जीजू में कहाँ? जैसे कानों में रस भर दिया गया हो। विपरीत लिंग मुखारविंद से सुनने को मिले तो कहना ही क्या! एक अपनत्व, स्नेहिलता , सम्मान और न जाने कितनी गूढ़ता का वाचक है 'जीजाजी'। औऱ अब तो हद ही हो गई , उसके अंग्रेजीकरण ने शब्दार्थ और उसके निहितार्थ का सत्यानाश ही कर दिया , नए जमाने के साले जीजाजी को जीजू भी नहीं भाई साहब कहने लगे। भला रिश्ते क्यों न ठंडे पड़ें ! सब आत्मीयता ही खत्म हो गई। ऐसे कर दिया जैसे जैसे किसी सड़क पर चलते राहगीर से कह रहे हों : ए भाई! जरा हट के चलो। रस में नीरसता घोलने की की सीमा का अतिक्रमण ही कर दिया। रसमयता भंग हो गई। नया जमाना क्या कुछ नहीं कर दे ! रिश्तों को जिंदा रखिए , यदि जीजी और जीजाजी को जिंदा रखना है। तभी 'जीवन' , जो 'जीने' का 'वन ' है , बचेगा।
💐शुभमस्तु !
✍🏼लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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