हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षाओं का परिणाम सामने है। सभी की तरह मुझे भी प्रसन्नता है। सबसे ज्यादा तो उन्हें होगी जो इसके परिणाम से प्रभावित हैं और उनके माता -पिता, शिक्षक, इष्ट -मित्र और सम्बन्धी।लेकिन ये 80 ,85,90 और 95 प्रतिशत के प्राप्तकर्ता परीक्षार्थी जब उच्च शिक्षा औऱ उससे भी ऊपर जब जीवन की पाठशाला में पढ़ते हैं तो उनका ये उच्च प्रतिशत 40 से भी नीचे क्यों गिर जाता है? वे जीवन के विश्व विद्यालय की शिक्षा प्राप्त करने के हकदार क्यों नहीं रह जाते? व्यक्तिगत रूप से मुझे किसी किसी के भी प्रति न ईर्ष्या है न लगाव, विद्वेष है न प्रेम । एक तटष्थ भाव से चिन्तन करने और इनके भावी के ऊपर विचार करने पर यही प्रतीत होता है। निश्चित ही कहीं न कहीं व्यवस्था में खोट अवश्य है।
हमारी शिक्षा व्यवस्था में नीचे , जिसे "नींव की शिक्षा " कहना चाहिए , वहाँ एक प्रकट या अप्रकट रूप से एक नीति यह भी है कि किसी को फेल न किया जाए, चाहे वह पढ़ने -लिखने में कितना भी फिसड्डी क्यों न हो।क्या हमारी शिक्षा प्रणाली का यह दोष नहीं है कि अयोग्य को भी योग्यता का सर्टिफिकेट देकर सम्मानित कर दिया जाए? क्या हम केवल नई पीढ़ी को केवल साक्षर बना कर छोड़ देंना चाहते हैं ? यदि ऐसा ही है तो फिर आंख बंद कर नम्बर देने की भी कोई अंदरूनी पॉलिसी हो सकती है , जो देश की सियासत के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है।
आप और हम सभी जानते हैं कि कोई भी दल या उसके नेता नहीं चाहते कि लोग पढ़ -लिख कर योग्य बनें!इसलिए 25 परसेंट वाले को 65 परसेंट देकर खुश कर दो। कौन है ऐसा जो झूठी प्रशंसा से फूलकर कुप्पा न हो जाए? इसी प्रकार यदि बिना पढ़े ही यदि 85 और 95 %नम्बर आ जायँ , तो कौन है ऐसा जो उसे अस्वीकार कर ये कहे कि ये अंक मेरी योग्यता से अधिक हैं?इतने अंक तो आ ही नही सकते थे. बेसिक और जूनियर स्तर पर जो विद्यार्थी यूं ही उत्तीर्ण कर दिए गए , क्या जरूरत है कि वे उच्च कक्षाओं में पढ़कर योग्य बनें? जब बिना योग्यता ही 500 में से 488 नम्बर मिलें , तो पढ़ने की आवश्यकता ही क्या है।
बस यहीं से अबोध नौनिहालों की जड़ों में विषैला मट्ठा भर दिया गया , जो प्रकारांतर से जूनियर शिक्षा से ऊपर भी डाला जा रहा है। परीक्षक को केवल अपने मानदेय से मतलब है , शिक्षा के स्तर से नहीं। कौन कितनी जल्दी कॉपी जांचकर घर जा सकता है , ये टीचर की अपनी योग्यता का मानक माना जाता है। कापियाँ जाँचने का कम्पटीशन छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ करते हुए उन्हें भावी कम्पटीशन से बाहर कर रहा है। यही आज की कड़वी है। अन्यथा हाई स्कूल और और इंटर में 90 या इससे ऊपर लाने वालों को उच्च शिक्षा, में पास होने के लाले क्यों पड़ जाते हैं, वे किसी छोटे से छोटे कम्पटीशन में पसीना क्यों छोड़ जाते हैं? एक ओर विद्यार्थियों का गहन अध्ययन न करना और टीचर द्वारा पढ़ाने की केवल औपचारिकता पूरी करना - यही कुछ मुख्य कारण हैं, जो शिक्षा का पतन कर रहे हैं। केवल दिखावटी हाई परसेंटेज ,हाथी के बाहरी दांतों की तरह दिख रही है , जिनसे भोजन करना असंभव है।
सरकार नकल पर प्रतिबंध लगा रही है , ये उचित है । लेकिन उसकी सारी कमी मूल्यांकन में पूरी कर दी जा रही है। इसके लिए सरकार को और अधिक सक्रिय रूप से नियम बनाकर उन पर चलना और चलाना होगा।अन्यथा झूठी लोकप्रियता के चक्कर में पीढियां बरवाद होती रहेंगीं। सचाई सदैव कड़वी होती है, जिसे निगलना सबके वश में नहीं होता।
💐शुभमस्तु।
✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"
हमारी शिक्षा व्यवस्था में नीचे , जिसे "नींव की शिक्षा " कहना चाहिए , वहाँ एक प्रकट या अप्रकट रूप से एक नीति यह भी है कि किसी को फेल न किया जाए, चाहे वह पढ़ने -लिखने में कितना भी फिसड्डी क्यों न हो।क्या हमारी शिक्षा प्रणाली का यह दोष नहीं है कि अयोग्य को भी योग्यता का सर्टिफिकेट देकर सम्मानित कर दिया जाए? क्या हम केवल नई पीढ़ी को केवल साक्षर बना कर छोड़ देंना चाहते हैं ? यदि ऐसा ही है तो फिर आंख बंद कर नम्बर देने की भी कोई अंदरूनी पॉलिसी हो सकती है , जो देश की सियासत के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है।
आप और हम सभी जानते हैं कि कोई भी दल या उसके नेता नहीं चाहते कि लोग पढ़ -लिख कर योग्य बनें!इसलिए 25 परसेंट वाले को 65 परसेंट देकर खुश कर दो। कौन है ऐसा जो झूठी प्रशंसा से फूलकर कुप्पा न हो जाए? इसी प्रकार यदि बिना पढ़े ही यदि 85 और 95 %नम्बर आ जायँ , तो कौन है ऐसा जो उसे अस्वीकार कर ये कहे कि ये अंक मेरी योग्यता से अधिक हैं?इतने अंक तो आ ही नही सकते थे. बेसिक और जूनियर स्तर पर जो विद्यार्थी यूं ही उत्तीर्ण कर दिए गए , क्या जरूरत है कि वे उच्च कक्षाओं में पढ़कर योग्य बनें? जब बिना योग्यता ही 500 में से 488 नम्बर मिलें , तो पढ़ने की आवश्यकता ही क्या है।
बस यहीं से अबोध नौनिहालों की जड़ों में विषैला मट्ठा भर दिया गया , जो प्रकारांतर से जूनियर शिक्षा से ऊपर भी डाला जा रहा है। परीक्षक को केवल अपने मानदेय से मतलब है , शिक्षा के स्तर से नहीं। कौन कितनी जल्दी कॉपी जांचकर घर जा सकता है , ये टीचर की अपनी योग्यता का मानक माना जाता है। कापियाँ जाँचने का कम्पटीशन छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ करते हुए उन्हें भावी कम्पटीशन से बाहर कर रहा है। यही आज की कड़वी है। अन्यथा हाई स्कूल और और इंटर में 90 या इससे ऊपर लाने वालों को उच्च शिक्षा, में पास होने के लाले क्यों पड़ जाते हैं, वे किसी छोटे से छोटे कम्पटीशन में पसीना क्यों छोड़ जाते हैं? एक ओर विद्यार्थियों का गहन अध्ययन न करना और टीचर द्वारा पढ़ाने की केवल औपचारिकता पूरी करना - यही कुछ मुख्य कारण हैं, जो शिक्षा का पतन कर रहे हैं। केवल दिखावटी हाई परसेंटेज ,हाथी के बाहरी दांतों की तरह दिख रही है , जिनसे भोजन करना असंभव है।
सरकार नकल पर प्रतिबंध लगा रही है , ये उचित है । लेकिन उसकी सारी कमी मूल्यांकन में पूरी कर दी जा रही है। इसके लिए सरकार को और अधिक सक्रिय रूप से नियम बनाकर उन पर चलना और चलाना होगा।अन्यथा झूठी लोकप्रियता के चक्कर में पीढियां बरवाद होती रहेंगीं। सचाई सदैव कड़वी होती है, जिसे निगलना सबके वश में नहीं होता।
💐शुभमस्तु।
✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"
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