'व्यापकता 'और 'संकीर्णता' इन दो शब्दों के अर्थ आप सभी अच्छी तरह से जानते हैं। लेकिन देखा ये जा रहा है कि ऊपर से लेकर नीचे तक , सरकारों से लेकर प्रशासन के हर क्षेत्र तक, समाज में ऊपर से लेकर व्यक्ति व्यक्ति तक, धर्माधिशों से लेकर महंतों , पुजारियों तक, समाज सुधारकों से लेकर स्वयं सुधारकों तक, तिलकधारियों से लेकर पोथी धारकों , कथावाचकों तक, शिक्षक से लेकर अभिभावकों व छात्रों तक, अधिकारियों से लेकर कर्मचारियों तक ---सर्वत्र व्यापकता के भीतर संकीर्णता घुसी हुई है।
बड़े-बड़े नारे, लंबे चौड़े उपदेश, ऊँचे-ऊँचे आदर्श , लंबे विस्तृत बैनर , बड़ी-बडीं जनहित योजनाएं , सब एक ढोल में पोल की संकीर्णता से व्याप्त हैं। 'बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ , बेटा -बेटी एक समान, जनहित और गरीबों , की सेवा, गंगा आदि नदियों की शुद्धि, ये सब हाथी के खाने और दिखाने के दाँतों की तरह हैं। जिनका बाह्य रूप कुछ और है, रंगीला , चमकीला, भड़कीला, आकर्षक और लोक लुभावन ,किन्तु उसका असली स्वरूप भद्दा , घिनोना, अनाकर्षक , हेय , घृणास्पद और निंदनीय है। जब ऊपर ही इतनी कालोंच है है तो उसका आंतरिक स्वरूप सुंदर कैसे हो सकता है। जिससे जितनी ज्यादा उम्मीद की जाए , वह उतना ही अधिक निराशाजनक सिद्ध हो रहा है। सबको ऊँची कुर्सी चाहिए , नाम चाहिए , नामा चाहिए। अपना परिवार , अपनी जाति और केवल अपनों का ही भला होना चाहिए , यही हमारी आंतरिक थीम है, जिसे हम कथनी और करनी के विरोधाभास में प्रकट कर पाते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी अंट-संट बक देना ही जायज है। आज़ादी के मायने स्वेच्छाचारिता कदापि नहीं हो सकते। जाति वाद , धर्मवाद , क्षेत्रवाद , मजहबवाद चरम पर है कि कबीर के काल में नहीं रहा होगा। मानव की मानव के प्रति आंतरिक घृणा इस कदर बदबू फैला रही है कि ये पता लगाना मुश्किल है कि जो व्यक्ति आज हमारे सामने चेहरे पर मुस्कान उंडेलकर हमें कितना अज़ीज और परम्प्रे मी दिखाई दे रहा है , उसके अंदर हमारे पीठ पीछे कितनी अधिक गंदगी , गुबार और गलत संस्कार भरा हुआ है ,सोचा भी नहीं जा सकता। नारे और आदर्श सभी नितांत खोखले हो चुके। केवल अखबारी सुर्खियां लूटने , चेहरे चमकाने के नाम पर बड़े-बड़े समाज सुधारक , धर्म सुधारक, संगठन दौड़ रहे हैं , पर उनकी भी मंजिल नाम , नामा और ऊँची कुर्सी तक ही है।
जब सारे कुओं में भांग घोल दी गई गई हो , तो व्यक्ति , समाज , और देश का सुधार करने की बातें हास्यास्पद ही हैं। शिक्षा जैसा पवित्र कार्य भी अब अपवित्र हो गया है, जैसे संगम पर त्रिवेणी में प्रयाग के सारे नाले उसे प्रदूषित कर रहे हैं , वैसे ही अभिभावक , शिक्षक और शिक्षार्थी तीनों ही उसे गंदा नहीं महा गंदा बनाने के लिए कमर कसकर खड़े हुए हैं। लगा लो कैमरे औऱ कर लो सख्ती , चोर पहले से ही मोरी ढूढं लेते हैं , जहां से बचकर वे निकल सकें। समाज का हर व्यक्ति शार्ट कट की तलाश में अपनी अस्मिता और आस्तित्व को दाँव पर लगाए बैठा है। प्रकारांतर से वह जिनका भला करने की बात करता है, सही अर्थों में वह व्यक्ति और समाज का बहुत बड़ा दुश्मन है। वह व्यक्ति , समाज और राष्ट्र को विकलांग बना रहा है। लोग झूठी डिग्रियाँ लेकर नौकरी के लिए झंडा ऊंचा कर रहे हैं , और उनकी वास्तविक योग्यता ये है कि उन्हें अपना , नाम , पता तक सही तरह से लिखना नहीं आता। इस सब के लिए दोषी कौन.?हमारी शिक्षा व्यवस्था, शॉर्टकट पसंद अभिभावक, "शुभचिन्तक"शिक्षक, और स्वयम शिक्षार्थी,।
क्या ऐसे ही बनेगा भारत देश महान। रहा बचा सो सब सियासत , सियासतदां लोगों और धर्म के ठेकेदारों ने बर्बाद कर दिया और निरन्तर कर रहे हैं। सुधार की कोई किरण दिखाई नहीं देती। निश्चित ही भविष्य अंधकारमय है , जिसके लिए जिम्मेदार हैं उक्त कथित सभी वर्ग और व्यक्ति भी। पर नक्कारखाने में तूती की आवाज़ भला कौन सुनता है। मत सुनो। जैसा बोओगे , वैसा ही काटोगे।
इति शुभं।
✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
बड़े-बड़े नारे, लंबे चौड़े उपदेश, ऊँचे-ऊँचे आदर्श , लंबे विस्तृत बैनर , बड़ी-बडीं जनहित योजनाएं , सब एक ढोल में पोल की संकीर्णता से व्याप्त हैं। 'बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ , बेटा -बेटी एक समान, जनहित और गरीबों , की सेवा, गंगा आदि नदियों की शुद्धि, ये सब हाथी के खाने और दिखाने के दाँतों की तरह हैं। जिनका बाह्य रूप कुछ और है, रंगीला , चमकीला, भड़कीला, आकर्षक और लोक लुभावन ,किन्तु उसका असली स्वरूप भद्दा , घिनोना, अनाकर्षक , हेय , घृणास्पद और निंदनीय है। जब ऊपर ही इतनी कालोंच है है तो उसका आंतरिक स्वरूप सुंदर कैसे हो सकता है। जिससे जितनी ज्यादा उम्मीद की जाए , वह उतना ही अधिक निराशाजनक सिद्ध हो रहा है। सबको ऊँची कुर्सी चाहिए , नाम चाहिए , नामा चाहिए। अपना परिवार , अपनी जाति और केवल अपनों का ही भला होना चाहिए , यही हमारी आंतरिक थीम है, जिसे हम कथनी और करनी के विरोधाभास में प्रकट कर पाते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी अंट-संट बक देना ही जायज है। आज़ादी के मायने स्वेच्छाचारिता कदापि नहीं हो सकते। जाति वाद , धर्मवाद , क्षेत्रवाद , मजहबवाद चरम पर है कि कबीर के काल में नहीं रहा होगा। मानव की मानव के प्रति आंतरिक घृणा इस कदर बदबू फैला रही है कि ये पता लगाना मुश्किल है कि जो व्यक्ति आज हमारे सामने चेहरे पर मुस्कान उंडेलकर हमें कितना अज़ीज और परम्प्रे मी दिखाई दे रहा है , उसके अंदर हमारे पीठ पीछे कितनी अधिक गंदगी , गुबार और गलत संस्कार भरा हुआ है ,सोचा भी नहीं जा सकता। नारे और आदर्श सभी नितांत खोखले हो चुके। केवल अखबारी सुर्खियां लूटने , चेहरे चमकाने के नाम पर बड़े-बड़े समाज सुधारक , धर्म सुधारक, संगठन दौड़ रहे हैं , पर उनकी भी मंजिल नाम , नामा और ऊँची कुर्सी तक ही है।
जब सारे कुओं में भांग घोल दी गई गई हो , तो व्यक्ति , समाज , और देश का सुधार करने की बातें हास्यास्पद ही हैं। शिक्षा जैसा पवित्र कार्य भी अब अपवित्र हो गया है, जैसे संगम पर त्रिवेणी में प्रयाग के सारे नाले उसे प्रदूषित कर रहे हैं , वैसे ही अभिभावक , शिक्षक और शिक्षार्थी तीनों ही उसे गंदा नहीं महा गंदा बनाने के लिए कमर कसकर खड़े हुए हैं। लगा लो कैमरे औऱ कर लो सख्ती , चोर पहले से ही मोरी ढूढं लेते हैं , जहां से बचकर वे निकल सकें। समाज का हर व्यक्ति शार्ट कट की तलाश में अपनी अस्मिता और आस्तित्व को दाँव पर लगाए बैठा है। प्रकारांतर से वह जिनका भला करने की बात करता है, सही अर्थों में वह व्यक्ति और समाज का बहुत बड़ा दुश्मन है। वह व्यक्ति , समाज और राष्ट्र को विकलांग बना रहा है। लोग झूठी डिग्रियाँ लेकर नौकरी के लिए झंडा ऊंचा कर रहे हैं , और उनकी वास्तविक योग्यता ये है कि उन्हें अपना , नाम , पता तक सही तरह से लिखना नहीं आता। इस सब के लिए दोषी कौन.?हमारी शिक्षा व्यवस्था, शॉर्टकट पसंद अभिभावक, "शुभचिन्तक"शिक्षक, और स्वयम शिक्षार्थी,।
क्या ऐसे ही बनेगा भारत देश महान। रहा बचा सो सब सियासत , सियासतदां लोगों और धर्म के ठेकेदारों ने बर्बाद कर दिया और निरन्तर कर रहे हैं। सुधार की कोई किरण दिखाई नहीं देती। निश्चित ही भविष्य अंधकारमय है , जिसके लिए जिम्मेदार हैं उक्त कथित सभी वर्ग और व्यक्ति भी। पर नक्कारखाने में तूती की आवाज़ भला कौन सुनता है। मत सुनो। जैसा बोओगे , वैसा ही काटोगे।
इति शुभं।
✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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