सोमवार, 9 जुलाई 2018

आवारा पालतू पशु पालन परियोजना:2

   -एक सुझाव-
मेरे उक्त विषयक पिछले लेख के अंतर्गत हमारे एक शुभचिंतक मित्र ने एक अहं समस्या पर ध्यान आकृष्ट किया है। निश्चय ही यह स्वागत योग्य है।उन्होंने बछड़ों औऱ सांडों की समस्या बताई , जो सर्वथा उचित है।  क्योंकि गाय , भैंस आदि दूध देने वाले पशु तो दूध देते हैं , फिर बछड़ों और सांडों का क्या हो? हमारे कृषि प्रधान देश में यद्यपि उन्नत कृषि के लिए ट्रैक्टर आदि मशीनों का उपयोग किया जा रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश कर वाराणसी ,इलाहाबाद आदि अनेक पूर्वी जिलों  में आज  भी भैंस और भैंसाओं से हल चलाकर जुताई -बुवाई का कार्य निष्पादित किया जाता है। वहाँ पर उन गरीब किसानों को उन बछड़ों को खस्सी कराने के बाद  बैल के रूप में विक्रय किया जा सकता है। उनकी नस्ल सुधार के बाद अच्छे सांड उपयोग में लाये जा सकते हैं। अच्छे सांड़ों से अधिक दूध देने वाली गाय भैंसों की नस्ल में सुधार किया जा सकता है। इन्हें कट्टी घरों में भेजने की सलाह तो एकदम नहीं दी जा सकती। क्योंकि यह धर्म विरुद्ध होने के साथ -साथ अमानवीय भी है।
     सांड़ों और बछड़ों की समस्या निस्संदेह चिंतनीय है ।क्योंकि अधिकांशत: खेती ट्रेक्टर आदि से हो रही है।इसका मतलब ये भी नहीं कि इन्हें यों ही मरने कटने के लिए छोड़ दिया जाए?  सांड़ों के वीर्य को संग्रह करके उसे देश के कृत्रिम गर्भाधान केंद्रों में भेजा जाना भी उनकी उपादेयता होगी। उन पर शोध-केंद्रों में उच्च गुणवत्ता हेतु शोध किए जा सकते हैं। जिससे और अच्छी नस्लें  पैदा की जा सकती हैं। इन्हीं *आवारा पशु पालन परियोजना केंद्रों * को शोध केन्द्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। इससे बछड़ों और सांड़ों की उपादेयता स्वयम सिद्ध होगी। फिर ये नहीं सोचना पड़ेगा कि इनका क्या करें?

💐शुभमस्तु!
लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

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