रविवार, 22 जुलाई 2018

डिबिया-दास

 ये खिलौना जो मेरे हाथ में है
आप   सबके   भी  साथ में है
इसके बिना काम नहीं चलता
सोते-जगते दिवस  रात में  है।

मुँह भी नहीं है   मगर बोलता है
नहीं हैं   चरण मगर   डोलता है
सुनता भी है ये बिना  कानों  के
कभी कुनेन कभी मधु घोलता है।
            
खो जाए गर खिलौना खो गया सब कुछ
रह जाए घर कहीं तो पास नहीं है कुछ
नहीं चलता कोई काम बिना इसके
पास रह जाए तो मिल गया सब कुछ।
                 
बिना इसके उदास दिन भर रहते
न होते संवाद न किसी से  कहते
दिल की धड़कनबन गया खिलौना
ऊबते भी तो नहीं साथ रहते रहते
                
व्यापार इसी से    डकैती चोरी भी
इसी में बैंक बटुआ भी तिजोरी भी
गीत संगीत सिनेमा फिल्में इसमें 
कम्प्यूटरभी इसमें है यहीं टीवी भी
                    
इश्क मोहव्वत दुश्मनी रार सभी
पढ़ाई फ़ोटो सेल्फी का आधार यही
मनोरंजन का  भण्डार  वीडियो मनहर
अपनों को चाह पाने का संसार सभी।
                 
मत होना गुलाम इस खिलौने के
मोह में  न मर जाना  अनहोने के
किसी चमत्कार से न कम मगर क्या!
मशीन नहीं बनना है इंसान होने से

नम्बरों ने पहचान   मिटा दी तेरी
एक नम्बर से नहीं ज्यादा कीमत तेरी
जड़ों के साथ जड़ हो गया इंसां
नहीं संभला तो हो चुकेगी देरी।
             
दूर वालों को निकट बुलाता  है
दूरी को समेट     पास  लाता है
आमने -सामने ज्यूँ बात होती है
परायों को भी निज    बनाता है।
                
खेलना है खिलौने से खूब खेलो
इसकी कीमत पे मुश्किलें मत झेलो
अधीन इसको अपने बनाकर चलना
नहीं तो रोग के पापड़ भी तुम   बेलो।

सभी हैं घर में मगर चुप क्यों हैं
खोए हैं खिलौनों में सभी चुप यों हैं
एक छत के नीचे भी संवाद नही कोई
ये खिलौने के रोगी हैं  गुप्चुप यों हैं
              
आया मेहमान सभी खिलौने में मगन
न पानी न नाश्ता न भोजन का जतन
दुआ सलाम करना भी दूभर ऐसा
बड़े -बड़े भवनों में शांति का शयन।
                   
बैठकों में भी सभी खिलौनों में बिज़ी,
छूट जाते हैं धुन में संबंध निजी,
कोई किसी की भी परवाह नहीं करता
रह ही जाती हैं महफ़िल सजी की सजी।
                 
"शुभम"इस खिलौने ने ठग लिया इंसां,
हो गया है" डिबिया -दास" अच्छा इंसां,
ये कौन सी संस्कृति की पछुआ चली
लुट गया है  मशीनों के हाथों इंसां।

शुभमस्तु
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

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