आदमी अपने घर और समाज में छिपकलियों, चूहों, गिलहरियों, कुत्तों , बिल्लियों, गधे , घोड़ों , गाय , भैंस , भैंसाओं, मच्छरों , खटमलों , जुओं, अनगिनत कीड़े - मकोड़ों , मकड़ियों, के बीच बड़े ही सौहार्द्र पूर्ण ढंग से रहता है। कहीं कोई शिकायत नहीं, शिकवा नहीं। लेकिन वह आदमी आदमियों के बीच सौहार्दपूर्ण ढंग से नहीं रह पा रहा है। समाज और देश की अखंडता को चुनौती देते हुए ऐसी ऐसी हरकतें कर रहा है कि मानवता शर्मशार हो रही है।
आए दिन अखबारों में असामाजिक तत्त्वों द्वारा मूर्ति भंजन की घटनाओं के समाचार पढ़कर उसकी बुद्धि पर तरस भी आता है और ये विचार करने के लिए भी बाध्य होना पड़ता है कि अंततः इस मनुष्य को हो क्या गया है?
समाज और देश में इस धरती पर प्रत्येक मनुष्य की अपनी तरह जीने का पूरा अधिकार है , लेकिन ये मनुष्य नहीं चाहता कि कोई और मनुष्य भी रहे।एक ओर जहां हम देश और राष्ट्र की एकता और अखंडता की बात करते नहीं थकते , वहीं अपने मन का सारा मैलापन पथरबकी मूर्तियों पर निकाल कर उन्हें तोड़ रहे हैं। हर किसी को अधिकार है कि वह अपने आराध्य और इष्टदेव की आराधना करें , पूजा करे , सम्मान दे। परन्तु किसी अन्य को क्या अधिकार है कि वह उन आस्था के प्रतीकों का भंजन करे। यदि आपके ही आराध्य के साथ ऐसा होता है तो आपकी कैसा लगता है? क्या खुशी होती है ? अथवा मन में आक्रोश की उत्पत्ति होती है? ये मूर्ति भंजन नितांत अनुचित, अमानवीय , असंवैधानिक और पाशविक कृत्य है।
हर मनुष्य भी तो परम पिता परमात्मा द्वारा निर्मित एक मूर्ति ही है। सभी जानते हैं कि चलती -फिरती मानव -मूर्ति कितने प्रयासों, परिश्रम, ईश्वरीय कृपा, पूर्व जन्म के संस्कार,प्रारब्ध और संचित कर्मों के परिणामस्वरूप बनती है। वही मानव जब धातु , मिट्टी अथवा पाषाण निर्मित मूर्ति में आस्था प्रकट करता है तो उसका भी सम्मान किया जाना चाहिए। ये जाहिलों और गँवारों की। पाशविक हरकत क्या समाज और देश की एकता और खंडता को कायम रख सकेगी? कदापि नहीं, ऐसे सभी लोग मानवता , समाज और देश के घातक और द्रोही दुश्मन हैं। साधु संत जन भी परस्पर संतों को और सभी नर नारियों को मूर्ति की संज्ञा से अभिहित करते हैं। बात भी सही है। जब परमात्मा जो हम सभी का नियंता औऱ संहारकर्ता है , वह भी समयपूर्व इन मूर्तियों का भंजन नहीं करता , फिर इस तुच्छ बुद्धिवाहक मानव को क्या अधिकार है। वह देश की कला और संस्कृति का शत्रु है। यदि आप किसी की सम्मान देंगे तो बदले में सम्मान प्राप्त भी करेंगें। ये सम्मान का मिलना और न मिलना तो कुएं की मुंडेर पर खड़े होकर आवाज देने जैसी है, तू बोलोगे तो प्रतिध्वनि भी तू ही आएगी और आप कहेंगे तो आप की तिध्वनि गूंजेगी।
मूर्ति -भंजन करके ये छोटे बड़े की लड़ाई आपको विनाश औऱ गृहयुद्ध की ओर ले जा रही है। जब आपस में ही लड़ कट कर भूमिसात हो जाओगे तो बाहरी दुश्मन तो तुम्हें चुटकियों में परास्त कर देगा। कुछ देश और समाज की भी सोचिए। अपनी नैतिकता को इतना मत गिराइए की हवा का एक हल्का सा झोंका ही आपको मिट्टी में न मिला दे। मन की संकीर्णता को छोड़कर BROADMINDED बनिए। जाति और धर्म सब यहीं पर बनाए हैं, और यहीं छूट भी जाएँगे। इतनी अकड़ भी अच्छी नहीं कि रस्सी जल जल जाए और बल मिटें ही नहीं।
शुभमस्तु।
✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप "शुभं
आए दिन अखबारों में असामाजिक तत्त्वों द्वारा मूर्ति भंजन की घटनाओं के समाचार पढ़कर उसकी बुद्धि पर तरस भी आता है और ये विचार करने के लिए भी बाध्य होना पड़ता है कि अंततः इस मनुष्य को हो क्या गया है?
समाज और देश में इस धरती पर प्रत्येक मनुष्य की अपनी तरह जीने का पूरा अधिकार है , लेकिन ये मनुष्य नहीं चाहता कि कोई और मनुष्य भी रहे।एक ओर जहां हम देश और राष्ट्र की एकता और अखंडता की बात करते नहीं थकते , वहीं अपने मन का सारा मैलापन पथरबकी मूर्तियों पर निकाल कर उन्हें तोड़ रहे हैं। हर किसी को अधिकार है कि वह अपने आराध्य और इष्टदेव की आराधना करें , पूजा करे , सम्मान दे। परन्तु किसी अन्य को क्या अधिकार है कि वह उन आस्था के प्रतीकों का भंजन करे। यदि आपके ही आराध्य के साथ ऐसा होता है तो आपकी कैसा लगता है? क्या खुशी होती है ? अथवा मन में आक्रोश की उत्पत्ति होती है? ये मूर्ति भंजन नितांत अनुचित, अमानवीय , असंवैधानिक और पाशविक कृत्य है।
हर मनुष्य भी तो परम पिता परमात्मा द्वारा निर्मित एक मूर्ति ही है। सभी जानते हैं कि चलती -फिरती मानव -मूर्ति कितने प्रयासों, परिश्रम, ईश्वरीय कृपा, पूर्व जन्म के संस्कार,प्रारब्ध और संचित कर्मों के परिणामस्वरूप बनती है। वही मानव जब धातु , मिट्टी अथवा पाषाण निर्मित मूर्ति में आस्था प्रकट करता है तो उसका भी सम्मान किया जाना चाहिए। ये जाहिलों और गँवारों की। पाशविक हरकत क्या समाज और देश की एकता और खंडता को कायम रख सकेगी? कदापि नहीं, ऐसे सभी लोग मानवता , समाज और देश के घातक और द्रोही दुश्मन हैं। साधु संत जन भी परस्पर संतों को और सभी नर नारियों को मूर्ति की संज्ञा से अभिहित करते हैं। बात भी सही है। जब परमात्मा जो हम सभी का नियंता औऱ संहारकर्ता है , वह भी समयपूर्व इन मूर्तियों का भंजन नहीं करता , फिर इस तुच्छ बुद्धिवाहक मानव को क्या अधिकार है। वह देश की कला और संस्कृति का शत्रु है। यदि आप किसी की सम्मान देंगे तो बदले में सम्मान प्राप्त भी करेंगें। ये सम्मान का मिलना और न मिलना तो कुएं की मुंडेर पर खड़े होकर आवाज देने जैसी है, तू बोलोगे तो प्रतिध्वनि भी तू ही आएगी और आप कहेंगे तो आप की तिध्वनि गूंजेगी।
मूर्ति -भंजन करके ये छोटे बड़े की लड़ाई आपको विनाश औऱ गृहयुद्ध की ओर ले जा रही है। जब आपस में ही लड़ कट कर भूमिसात हो जाओगे तो बाहरी दुश्मन तो तुम्हें चुटकियों में परास्त कर देगा। कुछ देश और समाज की भी सोचिए। अपनी नैतिकता को इतना मत गिराइए की हवा का एक हल्का सा झोंका ही आपको मिट्टी में न मिला दे। मन की संकीर्णता को छोड़कर BROADMINDED बनिए। जाति और धर्म सब यहीं पर बनाए हैं, और यहीं छूट भी जाएँगे। इतनी अकड़ भी अच्छी नहीं कि रस्सी जल जल जाए और बल मिटें ही नहीं।
शुभमस्तु।
✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप "शुभं
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