रविवार, 15 जुलाई 2018

वसुधैव कुटुम्बकम

   हम और हमारा देश "वसुधैव कुटुम्बकम" की संस्कृति का वाहक है , धारक है। लेकिन उसी देश के वासी हम भारतीय अपनीं उस पावन और संकीर्णता विहीन मानसिकता को विस्मृत कर बैठे हैं। इसी का कारण है कि आज हम नहीं जानते कि वसुधैव कुटुम्बकम क्या है ? हम जातियों , क्षेत्रों , मजहबों , भाषा और प्रदेश के नाम पर अपने अपने वृत्तों और घेरों में घिर गए हैं। यही कारण है कि विरोध की संस्कृति पनप रही है। जब सारे देशों और विश्व की संस्कृति एक हो रही है , तो भी हम क्यों टुकड़ों में बंटकर क्यों कमजोर बन रहे हैं।
   मतभेद तो दो भाइयों में भी हो सकता है, और है भी। तो क्या अपने भाई को भाई नहीं माना जायेगा? यदि पड़ौसी से हो जाए तो क्या करोगे। आज जब एक भाषा के साथ सारा विश्व एक हो रहा है , तो उस भाषा अंग्रेज़ी को क्यों नहीं छोड़ देते। वह आज की मानव दौड़ में हमारी आवश्यक आवश्यकता ही बन गई है। यदि हमने ऐसा नहीं किया तो अन्य देशों से हम पीछे रह जाएंगे। ऐसे में हमें सबके साथ चलकर प्रतिस्पर्धापूर्वक आगे बढ़ना है।फिर भी  एक संकीर्ण सोच को गले में बंदरिया के मृत शिशु की तरह गले मे लटकाए हुए क्या शोभित होता है?
   हमारी भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और अनेक प्रकार की स्थितियाँ और परिसिथतियां पृथक पृथक हो सकती हैं। हम सभी मिश्रित संस्कृति के युग मे जी रहे हैं।चौधरी की  चौधराहट कहाँ तक ? कि चौपाल तक। यों कूपमंडूक बने रहना अच्छा नहीं हैं। एक ओर हम ये भी मानते हैं कि हमारा देश बहुरंगी संस्कृतियों का देश है। यहां होली , दिवाली , ईद, क्रिसमस डे,  गुरु गोविंद सिंह जयंती, झूले लाल जयंती, गुरु तेगबहादुर शहीद दिवस, पोंगल, मकर संक्रांति, सभी कुछ मनाया जाता है। फिर ये संकीर्णता भरा विरोध क्यों?हमने अंग्रजों और इस्लामवादियों से कुछ लिया है तो उन्हें दिया भी है। उनकी धरोहरों। संसद भवन, लाल किला , ताजमहल,  अजंता , खजुराहो, दक्षिण और उत्तर दिशा के पवित्र मंदिर , वैष्णो देवी, केदार नाथ धाम, बद्रीनाथ धाम ---आदि सभी का हम भरपूर उपभोग तो कर रहे हैं , पर बात वहीं पर  आकर टिक जाती है कि गुड़ तो खाएंगे पर गुलगुले से परहेज है।धोती छोड़ पेंट तो पहन लिया पर नव ईसवी वर्ष , क्रिस्मड डे का जब तक विरोध नहीं करेंगे तब तक हम असली हिंदुस्तानी नहीं कहलायेंगे?  वाह रे! लोगो!! वाह !!वाह!! तुम्हारी  मान्यता? जीन्स तो  पहनेंगे पर विश्व संस्कृति के साथ मिलकर चलने से परहेज़ करेंगे?
   ये सब क्या है.? क्या यही वसुधैव कुटुम्बकम की  भारतीय अवधारणा है? क्या इसी तरह हम अन्य सभ्यताओं और संस्कृतियों से तालमेल बनाकर चल सकेंगे?? यही सब विचारणीय और  चिंतनीय बिंदु हैँ। अपने अहंकार के सिंहासन से नीचे उतर कर देखना होगा ।

 इति शुभम
✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

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