रविवार, 22 जुलाई 2018

स्वयं बदलाव अपेक्षित है

   सबकी सोच और विचार करने की क्षमता अलग -अलग है। किसी की सोच को किसी पर थोपा नहीं जा सकता।अपने अंदर अनेक कमियाँ होने के बावजूद सामने वाले में अनेक कमियां निकल देना मानव स्वभाव है।यदि हमें किसी में कमियाँ निकालने का अधिकार है तो उनमें सुधार का विनम्र सुझाव भी होना चाहिए। वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति किसी के सुझाव और मत को मानने और न मानने के लिए स्वतंत्र है किंतु अच्छे सुझाव का स्वागत अवश्य होना चाहिए।
   हम चाहते हैं कि दुनिया बदले , लेकिन जब तक हम अपने स्वभाव, आदत, चिंतन और चाहत में बदलाव लाने की नहीं सोचते तब तक किसी और में बदलाव की सोचना सर्वथा निर्रथक है। हम यदि अपने अंदर बदलाव ला सकते हैं तो ये जमाना, ये संसार ,ये समाज और सामने वाला हर व्यक्ति बदल जाएगा।
  समय और परिवेश के अनुरूप अपने को ढालते हुए बदलाव ले आना मानव की एक खूबी है। वह व्यक्ति वंदनीय और सराहनीय है ,जो समयानुरूप अपने में बदलाव ले आता है। अधिकतर लोग पिछलग्गू रहकर जीने में अपने को अधिक सुरक्षित अनुभव करते हैं। उन्हें एक सघन वटवृक्ष की छाँव चाहिए , अपनी सोच और दिमाग पर जोर न पड़ जाए , यदि ऐसा हो गया तो उनकी भेड़चाल का क्या होगा! इसीलिए लोग धार्मिक संगठनों, राजनीतिक दलों , सामाजिक संगठनों तथा अन्य अनेकानेक संगठनों  में मात्र भीड़ बढ़ाने का काम करते हैं। और लोकतंत्र का दूसरा नाम "भीड़तंत्र", या "भेड़तंत्र "ही तो है। जिसमें आदमी बिना सोचे विचारे केवल अन्ध समर्थन ही तो करता है। कर रहा है। इसीलिए देश के लोकतंत्र का विकास नहीं हो रहा है।अपने चिंतन की चरखी को बंद कर दिया गया है। यहाँ तक कि उसमें सिंहावलोकन रूपी मोबिल आयल भी नहीं डाला गया। जंग लग चुका है बिना चिंतन -चरखी को चलाये। मानव -बुद्धि जड़ता वाली स्थिति में है। इसलिए पीछे पीछे चलने में ही बुद्धिमता समझते हैं। यही जीवन जीने का शार्ट कट पथ है। और प्रायः शॉर्टकट चलना सबको अच्छा लगता है। चाहे उस पथ पर चलने में भले ही नैतिकता , चरित्र , देशभक्ति , सामाजिकता आदि की धज्जियाँ क्यों न उड़ जाएं!  हम नैतिकता के न तो पुजारी हैं और न रक्षक ही। हम तो केवल मूक दर्शक और वीडियो निर्माता आलोचक और प्रदर्शक हैं।  इसी कारण से देश क्या , समाज क्या , धर्म क्या , राजनीति क्या , हम सभी पतन के गर्त में स्वयं कूद रहे हैं।
   आवश्यकता है केवल आत्म चिंतन और स्वयं में बदलाव लाने की। अंधे लकीर के फकीर बनने की नहीं। तटस्थ भाव से चिन्तन, मनन और मंथन की। आत्मानुशासन की,  डंडा -शासन की नहीं। देश के हर अच्छे और सच्चे नागरिक को इस सबकी आवश्यकता है।  छेद में उँगली फंसाकर उसे बड़ा और बड़ा करना तो सभी जानते हैं। परंतु सिलना नहीं सीखा। सरौते ही सरौते हैं, कैंचियां ही  कैंचियां हैं, पर सुइयां बहुत कम हैं। हमें  कैंची ,सरौते नहीं बनना है , हमें बनना है सिर्फ  सुइयाँ , सुइयाँ ,सुइयाँ धागे सहित।

 शुभमस्तु।
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

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