मेरे मश्तिष्किय शोध के अनुसार आलू की खेती अहंकार की खेती है। सामान्यत: तोरई , लौकी, भिंडी , करेला , पालक, मूली , गोभी , हरी मिर्च, धनियां, टमाटर , कद्दू आदि हरी सब्जियों की खेती जिन किसानों के द्वारा की जाती है, उनमें प्रायः वे लोग ही शामिल हैं , जिन्हें काछी आदि जाति वर्गों के लोगों द्वारा किया जाता है। इन सभी हरी सब्जियों के उत्पादन के लिए बड़ी ही नियमितता, निरंतरता, परिश्रम, कर्मठता और लगन की ज़रूरत होती है।हर दूसरे तीसरे दिन तोरई ,भिंडी ,लौकी आदि तोड़कर नियमित रूप से मंडी या बाजार ले जाना उस किसान का काम होता है। अन्यथा उनके पक जाने या अप्रयोजनीय हो जाने का भय रहता है। निरन्तर नियमित रूप से निराई, गुड़ाई , सिंचाई , कीटोपचार ,पोषक तत्व प्रदान करना सम्बंधित कृषक का कार्य होता है और इस प्रकार की खेती करना निम्न और मध्यम वर्गीय लोगों का काम माना जाता है। इसी से उनकी गृहस्थी की नाव खेयी जाती है। यही खेती उनकी जीवन की नैया को खेती है। इसमें तनिक भी भूल, अनियमितता, और लापरवाही बर्दाश्त नहीं की जा सकती।
इसके विपरीत आलू की खेती किसी काछी किसान का काम नहीं माना जाता। यह एक शाही और शानदार खेती मानी जाती है।आलू की खेती करने वाले लोग कई प्रकार के हैं। एक वे लोग हैं , जिनके नगरों और कस्बों में छोटे या बड़े -बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठान हैं।उनके लिए वही मुख्य हैं और खेती गौड़ या सहायक व्यवसाय है, खेती नहीं। क्योंकि उनकी गृहस्थी और जिंदगी की नाव आलू के सहारे नहीं है, उसी मुख्य व्यवसाय के सहारे है।आलू तो मात्र सहायक औऱ शौकिया साइड बिजनिस है। ये सभी लोग अन्य हरी शाक - सब्जियाँ पैदा करना अपनी शान के विरुध्द समझते हैं। यही उनका अहंकार है। इसी अहंकार के कारण वे कुछ अन्य उत्पादन की सोच भी नहीं सकते। इसे वे अपनी आन , मान और शान के खिलाफ मानते हैं। 'मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का '- इस लोकोक्ति के अनुसार आलू में यदि घाटा भी हो जाए तो उन्हें कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ता। बेचारा बीच का किसान मारा जाता है। इन अहंकारी आलू - उत्पादकों की एक मज़बूरी भी है कि वे स्वयम कोई काम कर नहीं सकते। न बुवाई , न सिंचाई, न कीटनाशक छिड़कवाई, न खुदाई, न बोरा भराई या सिलाई , न लोडिंग और न हीं अनलोडिंग। इन सभी कार्यों के लिए इन्हें मजदूरों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसलिए ये सदैव पराश्रित आलू उत्पादक बन जाते हैं। ये सभी आलू किसान नहीं हैं। ये केवल आलू - व्यवसाई हैं। ये सभी नगरों कस्बों में ए सी कूलर में रहकर खेती करवाते हैं , करते नहीं।
दूसरा वर्ग उन मध्य औऱ निम्न वर्गीय किसानों का है , जो इन्हीं व्यापारी -आलू उत्पादकों की देखा -देखी उस मेढकी की तरह पैर में नाल ठुकवाने लगते हैं, जो किसी घोड़ी को नाल ठुकवाते देखकर अपने नाजुक पैरों में कीलें घुसवा लेती है। लेकिन थोड़ी ही देर में टें भी बोल जाती है। यही वास्तविक आलू -किसान है, जो कर्जे और घाटे के पत्थरों के मध्य दबा हुआ लम्बी -लम्बी सांसें लेने को मज़बूर है।
तीसरा वर्ग उस किसान का है , जिसके पास अपनी थोड़ी - बहुत कृषि -भूमि है।उसकी मजबूरी ये है कि वह पड़ौसी अन्य मँझले तबके के किसानों के अनुकरण पर जिस किसी तरह आलू बो देता है, परन्तु उसे वाँछित लाभ नहीं मिल पाता। सभी पड़ौसी खेतों में जब हरा-हरा आलू लहराते देखता है तो वह सोचता है कि गेहूं आदि से क्या करना, खरीद कर खा लेंगे, आलू ही करो। इस तरह वह भी आलू के गोलमाल में गर्क हो जाता है। नतीजा वही मेढकी के पंजे की नाल। वह भी हो जाता है बेहाल। ढीली पड़ जाती है उसकी भी चाल। न मिलता है माल, न बदल पाती है चाल।नतीजा सारे क्षेत्र के खेतों में आलू का धमाल ।
कहते हैं कि आलू सभी सब्जियों का राजा है, किंग है, बादशाह है। इस बादशाह ने कितनों की बादशाहत को बदरंग कर दिया। कितनों के सिंहासन धूल - धूसरित हो गए।आलू का उत्पादन और आलू का किसान होना , दोनों अलग -अलग बातें हैं। अपनी सामर्थ्य से बाहर ,रजाई से बाहर पैर फैलाने का हस्र ,सभी जानते हैं। इसलिए आलू की खेती, जरूरी नहीं कि आपकी नाव को खेती रहे।चिड़िया की तरह अंडों को सेती रहे। ये तो एक। जुआ- सट्टा है, लगा तो लगा ,नहीं लगा तो नहीं लगा। लगता कम है, डूबता अधिक है। कभी -कभी तो पौ बारह औऱ कभी नीचे फुट अठारह। दाँव है, लगा तो लगा, नहीं तो जो था वो भी भगा।आलू में कोई नहीं किसी का सगा।
इस तरह आलू की खेती, बस अहंकार को खेती, अहंकार की खेती। एक मनोवैज्ञानिक तथ्य ये भी है कि जहाँ जहाँ इस अहंकार के पोषक ,पालक और संचालक विद्यमान हैं , वहीं इसका आधिक्य भी है और प्राबल्य भी।विचारिये कि सत्य क्या है! तथ्य क्या है,!! और भविष्य क्या है!!!
💐 शुभमस्तु!
✍🏼लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"
इसके विपरीत आलू की खेती किसी काछी किसान का काम नहीं माना जाता। यह एक शाही और शानदार खेती मानी जाती है।आलू की खेती करने वाले लोग कई प्रकार के हैं। एक वे लोग हैं , जिनके नगरों और कस्बों में छोटे या बड़े -बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठान हैं।उनके लिए वही मुख्य हैं और खेती गौड़ या सहायक व्यवसाय है, खेती नहीं। क्योंकि उनकी गृहस्थी और जिंदगी की नाव आलू के सहारे नहीं है, उसी मुख्य व्यवसाय के सहारे है।आलू तो मात्र सहायक औऱ शौकिया साइड बिजनिस है। ये सभी लोग अन्य हरी शाक - सब्जियाँ पैदा करना अपनी शान के विरुध्द समझते हैं। यही उनका अहंकार है। इसी अहंकार के कारण वे कुछ अन्य उत्पादन की सोच भी नहीं सकते। इसे वे अपनी आन , मान और शान के खिलाफ मानते हैं। 'मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का '- इस लोकोक्ति के अनुसार आलू में यदि घाटा भी हो जाए तो उन्हें कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ता। बेचारा बीच का किसान मारा जाता है। इन अहंकारी आलू - उत्पादकों की एक मज़बूरी भी है कि वे स्वयम कोई काम कर नहीं सकते। न बुवाई , न सिंचाई, न कीटनाशक छिड़कवाई, न खुदाई, न बोरा भराई या सिलाई , न लोडिंग और न हीं अनलोडिंग। इन सभी कार्यों के लिए इन्हें मजदूरों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसलिए ये सदैव पराश्रित आलू उत्पादक बन जाते हैं। ये सभी आलू किसान नहीं हैं। ये केवल आलू - व्यवसाई हैं। ये सभी नगरों कस्बों में ए सी कूलर में रहकर खेती करवाते हैं , करते नहीं।
दूसरा वर्ग उन मध्य औऱ निम्न वर्गीय किसानों का है , जो इन्हीं व्यापारी -आलू उत्पादकों की देखा -देखी उस मेढकी की तरह पैर में नाल ठुकवाने लगते हैं, जो किसी घोड़ी को नाल ठुकवाते देखकर अपने नाजुक पैरों में कीलें घुसवा लेती है। लेकिन थोड़ी ही देर में टें भी बोल जाती है। यही वास्तविक आलू -किसान है, जो कर्जे और घाटे के पत्थरों के मध्य दबा हुआ लम्बी -लम्बी सांसें लेने को मज़बूर है।
तीसरा वर्ग उस किसान का है , जिसके पास अपनी थोड़ी - बहुत कृषि -भूमि है।उसकी मजबूरी ये है कि वह पड़ौसी अन्य मँझले तबके के किसानों के अनुकरण पर जिस किसी तरह आलू बो देता है, परन्तु उसे वाँछित लाभ नहीं मिल पाता। सभी पड़ौसी खेतों में जब हरा-हरा आलू लहराते देखता है तो वह सोचता है कि गेहूं आदि से क्या करना, खरीद कर खा लेंगे, आलू ही करो। इस तरह वह भी आलू के गोलमाल में गर्क हो जाता है। नतीजा वही मेढकी के पंजे की नाल। वह भी हो जाता है बेहाल। ढीली पड़ जाती है उसकी भी चाल। न मिलता है माल, न बदल पाती है चाल।नतीजा सारे क्षेत्र के खेतों में आलू का धमाल ।
कहते हैं कि आलू सभी सब्जियों का राजा है, किंग है, बादशाह है। इस बादशाह ने कितनों की बादशाहत को बदरंग कर दिया। कितनों के सिंहासन धूल - धूसरित हो गए।आलू का उत्पादन और आलू का किसान होना , दोनों अलग -अलग बातें हैं। अपनी सामर्थ्य से बाहर ,रजाई से बाहर पैर फैलाने का हस्र ,सभी जानते हैं। इसलिए आलू की खेती, जरूरी नहीं कि आपकी नाव को खेती रहे।चिड़िया की तरह अंडों को सेती रहे। ये तो एक। जुआ- सट्टा है, लगा तो लगा ,नहीं लगा तो नहीं लगा। लगता कम है, डूबता अधिक है। कभी -कभी तो पौ बारह औऱ कभी नीचे फुट अठारह। दाँव है, लगा तो लगा, नहीं तो जो था वो भी भगा।आलू में कोई नहीं किसी का सगा।
इस तरह आलू की खेती, बस अहंकार को खेती, अहंकार की खेती। एक मनोवैज्ञानिक तथ्य ये भी है कि जहाँ जहाँ इस अहंकार के पोषक ,पालक और संचालक विद्यमान हैं , वहीं इसका आधिक्य भी है और प्राबल्य भी।विचारिये कि सत्य क्या है! तथ्य क्या है,!! और भविष्य क्या है!!!
💐 शुभमस्तु!
✍🏼लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"
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