449/2024
पाने को कुछ पड़ता तपना।
सदा देखना ऊँचा सपना।।
लगे हुए सीधा करने में,
दुनिया वाले उल्लू अपना।
दृष्टि अन्य के धन पर उनकी,
राम - नाम की माला जपना।
पूछ नहीं निर्धन की कोई,
धनिकों के ही सम्मुख झुकना।
मेरा - मेरा करते बीता,
नहीं जानता पल भर रुकना।
बिना काम के नाम चाहते,
समाचार सुर्खी में छपना।
जननी - जनक न पूज्य मानते,
'शुभम्' न चाहें सेवा करना।
शुभमस्तु !
29.09.2024●10.30 आ०मा०
●●●
सोमवार, 30 सितंबर 2024
देखना ऊँचा सपना [ गीतिका ]
राम -नाम की माला जपना [सजल]
448/2024
समांत :अना
पदांत : अपदांत
मात्राभार : 16.
मात्रा पतन: शून्य
पाने को कुछ पड़ता तपना।
सदा देखना ऊँचा सपना।।
लगे हुए सीधा करने में।
दुनिया वाले उल्लू अपना।।
दृष्टि अन्य के धन पर उनकी।
राम - नाम की माला जपना।।
पूछ नहीं निर्धन की कोई।
धनिकों के ही सम्मुख झुकना।।
मेरा - मेरा करते बीता।
नहीं जानता पल भर रुकना।।
बिना काम के नाम चाहते।
समाचार सुर्खी में छपना।।
जननी - जनक न पूज्य मानते।
'शुभम्' न चाहें सेवा करना।।
शुभमस्तु !
29.09.2024●10.30 आ०मा०
●●●
शनिवार, 28 सितंबर 2024
वाह ! तेरी कारीगरी ! [व्यंग्य]
447/2024
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
वाह रे! तेरी कारीगरी रे करतार!तेरी महिमा अपरंपार !! मैं सारी दुनिया की सारी सृष्टि की बात नहीं करता। मैं तो केवल और केवल इस मानुस जातक,इस आदमी (औरत भी) की बात करना चाहता हूँ।हे करतार ये मानुस जाति भी क्या खूब बनाई! कहाँ -कहाँ की मिट्टी से इसकी मूर्तियाँ सजाईं ! मेरी तो समझ में आज तक नहीं आई। जितने आदमी औरत उतने तेरे साँचे !सारे/सारी भर रहे/रही नए -नए कुलाँचें ! इसकी बंद किताब को कोई जितना भी बाँचें ;उतना ही करता है ये तीन -पाँचें।सोचते -विचारते पड़ गए दिमाग में खाँचे।
उस पर भी तुर्रा यह कि पूरब और पच्छिम को ,उत्तर या दक्खिन को धरती और आकाश को मिला दिया।यह बस तू ही कर सकता था।हाथी, घोड़ा,कुत्ता ,बिल्ली,बंदर,शेर ,शेर,चीता में तो कर नहीं पाया। आदमी औरत के लिए विवाह शादी जैसा अद्भुत संविधान बनाया।यदि इनमें से किसी ने भी किंचित पगहा तुड़ाया तो मानुस समाज ने ही उसे कितना चिढ़ाया।उसे संविधान के विरुद्ध बतलाया।
विवाह के बंधन में बंधने के बाद ये दोनों आजीवन एक दूसरे को समझने में ही लगे रहते हैं ;किन्तु आज तक कोई किसी को समझ नहीं पाया। एक ही छत के नीचे और एक ही सेज के ऊपर एक साथ रहते हुए भी एक दूसरे के लिए पहेली बने रहे।आज भी पहेली हैं।परस्पर समझने की कोशिश निरन्तर जारी है ;किन्तु कोई लाभ नहीं। आदमी और औरत की विरोधाभासी जोड़ी सुलझने के बजाय और भी उलझ गई है।वे उषा और सूरज की तरह दिन में अलग -अलग हो जाते हैं और लड़ते -झगड़ते रहते हैं और सूर्यास्त होते ही सूरज और संध्या की तरह एक हो जाते हैं। समझौता कर लेते हैं।ये विच्छेद और संधि का का नैत्यिक कार्यक्रम आजीवन चलता रहता है। किंतु अंत वहीं ढाक के तीन पात में सिमट जाता है। बिगड़ते -सिमटते जीते हैं,मरते हैं ,पुनः जन्म लेते हैं और पुनः वही सत्तर -सत्तर जन्म का चक्र चलने लगता है।
हमारे विद्वान वैज्ञानिकों ने तो अणु और परमाणु का झगड़ा बताकर पल्ला झाड़ लिया कि सारी सृष्टि की रचना ही अणु और परमाणु के झगड़े से हुई है ।आदमी औरत भी वैसे ही बनते हैं।जब अणु और परमाणु विरोधी हैं तो दो ही बातें हो सकती हैं :आकर्षण या विकर्षण।यह आकर्षण और विकर्षण ही मानव जीवन है। अब वह शादीशुदा हो तो क्या और न हो तो भी क्या!जो होना है ,वह तो होगा ही।और बस उन्होंने अपना पिंड ही छुड़ा लिया।
अब हमारे विद्वान कवि ,लेखक, कहानीकार, व्यंग्यकार,नाटककार कब हार मानने वाले थे ,उन्होंने भी महाकाव्य,खण्डकाव्य, निबंध,कहानियाँ, लघुकथाएँ,व्यंग्य,नाटक,एकांकी आदि लिखकर आदमी और औरत की थाह लेने की कोशिश की। आज तक कर रहे हैं।नए-नए चरित्र,व्यक्तित्व,आदर्श,अनादर्श, परखे ,निरखे ;किन्तु क्या वे भी संतुष्ट होकर कह सके कि हमने आदमी और औरत को पूरी तरह समझ लिया है ! बस गले में पड़ा हुआ ढोल है ,जिसे बजाए जा रहे हैं। बजाए जा रहे हैं। पर निष्कर्ष वही :ढाक के तीन पात।
विचार किया जाए तो बात यही निकल कर आती है कि आदमी और औरत अलग -अलग मिट्टी की बनी हुई प्रतिमाएँ हैं,जो अपने में एक भी सम्पूर्ण नहीं हैं।परस्पर पूरक हैं। जो इधर नहीं ,वह उधर ढूँढे और जो उधर नहीं है वह इधर ढूंढ़े।इस ढूंढ़ - ढकोर में ही पूरी तरह चुक जाते हैं, किन्तु परस्पर पहचानने में तो चूके ही रहते हैं।दुनिया के करोड़ों जोड़ों में यदि कोई ऐसा जोड़ा भी है ,जिनमें कभी विवाद या झगड़ा न हुआ हो तो यह अपवाद ही कहा जायेगा।समरसता जीवन नहीं है।यदि स्त्री पुरुष में उतार -चढ़ाव न हो ;तो ऐसा जीवन भी कोई जीवन है ? लगता है दोनों का निर्माण एक ही तालाब की मिट्टी से कर दिया गया हो।जैसे वे पति - पत्नी नहीं ;कोई भाई -बहन ही हों। झगड़े और विवाद तो भाई बहनों में होते हैं, होते रहे हैं और होते भी रहेंगे। वे भी तो आदमी और औरत ही हैं न ! पति -पत्नी नहीं हैं तो क्या ! उनके निर्माणक तत्त्व तो भिन्न -भिन्न ही हैं।चमत्कार तो उस कारीगर परमात्मा का है ,जो कहाँ कहाँ की मिट्टी जोड़कर एक छत के नीचे ला बिठाता है।
वे आजीवन एक दूसरे को नहीं जान समझ पाते। ये कवि लेखक और वैज्ञानिक भला कैसे समझ पाएंगे? मानव का समग्र साहित्य उसकी चरित्रशाला है।मिट्टियों के ऊपर तरह- तरह का मिट्टी का ही दुशाला है।रंग में कोई गोरा है तो कोई काला है।पर ये रंग नहीं किसी की पहचान का खुला हुआ ताला है।काले खोल में भी गोरी ,गोरी है। और कोई - कोई तो गोरे में नहीं गोरी है। संक्षेप में कहें तो अंड में ब्रह्मांड समाया है।ये आदमी -औरत तो मात्र करतार की छाया है।इन्हें आज तक नहीं कोई समझ पाया है।ये कविताएँ,कहानियाँ, महाकाव्य,खण्डकाव्य सब उसके मनोरंजन के प्रकार हैं।जिनमें आदमी औरत के विभिन्न आकार साकार हैं।इनका बनाने वाला दृष्टा है ,निराकार है।वही आकाश है वही धरणी का आधार है। बस इतना ही मान ले तू बंदर, गधा, घोड़ा,बिल्ली, श्वान,गौमाता, भैंसमाता,बकरीमाता, भेड़माता नहीं; आदमी - औरत साभार है।
शुभमस्तु !
28.09.2024●2.45प०मा०
●●●
राधा:2 [कुंडलिया]
446/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
-1-
राधा रसरंजिनि रमा, मनमोहन की शक्ति।
भक्तों के मन में बसी, युग- युग की अनुरक्ति।।
युग-युग की अनुरक्ति,धान्य धन सुख की दानी।
संकटहारिणि शीघ्र, श्याम की प्रेम कहानी।।
'शुभम्' जपें जो नाम,मिटें पल भर में बाधा।
रटो राधिका श्याम, कृपा करती हैं राधा।।
-2-
राधा ने ब्रज-गाँव में,लिया सुघर अवतार।
रावल में माँ कीर्ति का, स्वप्न हुआ साकार।।
स्वप्न हुआ साकार, पिता वृषभानु तुम्हारे।
उदित हुए सौभाग्य, गाय बहु पालनहारे।।
'शुभम्' कृष्ण हरि रूप,मिटाते जन की बाधा।
बने रमापति श्याम, संग नित उनकी राधा।।
-3-
राधा मय मन को करो, मिल जाएंगे श्याम।
त्रेतायुग में राम थे, द्वापर सँग बलराम।।
द्वापर सँग बलराम, शेषशायी प्रभु न्यारे।
सोलह कला प्रधान, नंद यशुदा के प्यारे।।
रानी षोडश सहस, श्रेष्ठ ऊपर बिन बाधा।
पटरानी भी आठ, 'शुभम्' शोभित हैं राधा।।
-4-
राधा धारा प्रेम की, ज्यों जमुना की धार।
राधा रस में जो रमा, उसका हो उद्धार।।
उसका हो उद्धार,कृष्ण - रँग में अनुरंजित।
ब्रज की प्रेम फुहार,बाग ज्यों कोकिल गुंजित।।
'शुभम्' जीव आधार, श्याम का जिसने साधा।
करतीं नेह अपार, प्रेम बरसातीं राधा।।
-5-
राधामय संसार है, धन की देवी एक।
नेह राशि भंडार वे,कृष्ण प्रिया शुभ नेक।।
कृष्ण प्रिया शुभ नेक, युगों की नव अवतारी।
नेहशील शुचि कांति, विघ्न बहु नाश सँहारी।।
'शुभम्' जप रहे नाम,श्याम नित जाती बाधा।
हे जन जप लो श्याम, निरंतर राधा - राधा।।
शुभमस्तु !
27.09.2024●8.00आ०मा०
●●●
राधा [ कुंडलिया ]
445/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
-1-
राधा - राधा राधिका, आराधें दिन - रात।
कृपा करें वृषभानुजा, बाधाएँ हों मात।।
बाधाएँ हों मात, श्याम का नेह सलौना।
होगा सुखद प्रभात,शयन का विरल बिछौना।।
'शुभम्' मुरलिका टेर,मिटाए तन-मन बाधा।
करें न राधा देर, रटें जब राधा - राधा।।
-2-
राधा ने ज्यों ही सुनी, मधु मुरली की टेर।
निधिवन को दौड़ीं सखी,तनिक न करतीं देर।।
तनिक न करतीं देर, चाँदनी उजली रातें।
करतीं प्रेमालाप, मौन ही होती बातें।।
'शुभम्' गले में हार, महकते मिटती बाधा।
होती लीला रास , नाचतीं ब्रज की राधा।।
-3-
राधा कुंज करील में, विलसति माधव संग।
युगल सुशोभित हो रहे, ज्यों रति और अनंग।।
ज्यों रति और अनंग, सुमन गुहते रतनारे।
गायें करें किलोल, सघन बरगद थे प्यारे।।
'शुभम्' दृश्य यह देख, मिटे तन मन की बाधा।
देवी - देव प्रसन्न, देख मनमोहन राधा।।
-4-
राधा बोलीं श्याम से, करें न मोहन बात।
अधरों पर मुरली धरे, करते हमसे घात।।
करते हमसे घात, चैन हमको कब मिलता!
क्यों न छोड़ दें साथ, हृदय है भारी छिलता।।
'शुभम्' श्याम ने योग,कौन सा ऐसा साधा।
भरते रहते श्वास, व्यथित मन चिंतित राधा।।
-5-
राधा गोपी ग्वाल सब, निकले वन की ओर।
गोचारण करने लगे, घटा घिरी घनघोर।।
घटा घिरी घनघोर, चहकतीं सखियाँ सारी।
रँभा रहीं सब गाय, करें घर की तैयारी।।
'शुभम्' श्याम ने टेर, लगाकर सबको साधा।
भीगी चुनरी पीत, विहँसतीं खिल- खिल राधा।।
-6-
राधा अति बड़भागिनी, मिला श्याम का साथ।
आठ - आठ पटरानियाँ, ठोक रहीं हैं माथ।।
ठोक रही हैं माथ, मुरलिया शोभन हमसे।
कौन हुआ अपराध, मुक्त कब होंगीं गम से।।
'शुभम्' एक की बात, बड़ी हैं कितनी बाधा।
रमाकांत का नेह, कृष्ण की प्यारी राधा।।
शुभमस्तु !
27.09.2024● 3.00आ०मा०
●●●
शिक्षा का है काम [ गीत ]
444/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
नैतिकता
तन - मन विकास हित
शिक्षा का है काम।
पठन हेतु
एकाग्र रहें हम
तभी लगेगा ध्यान।
इन्द्रिय संयम
ध्यान सिखाए
करें ध्यान का मान।।
आदर्शों की
ओर अग्रसर
करता शिक्षा-धाम।
जब तक जीना
तब तक शिक्षा
अनुभव श्रेष्ठ महान।
समझे जो
कमजोर स्वयं को
बड़ा पाप ये जान।।
जितना ही
संघर्ष बड़ा हो
बड़ी विजय का नाम।
समझे रहो
आप अपने को
व्यक्ति महत्तावान।
नित्य करें
संवाद आप से
शिक्षा का प्रतिमान।।
जीवन का
निर्माण करे जो
मात्र न दे जो दाम।
स्वावलम्ब
होने का देती
शिक्षा सबक सदैव।
हाथ नहीं
फैला गैरों से
करे नहीं हा दैव!!
'शुभम्' पचाए
बिना घूमती
उसका अंत विराम।
शुभमस्तु !
26.09.2024●4.45 प०मा०
उत्कट प्रेम भक्ति ईश्वर की [ गीत ]
443/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
उत्कट प्रेम
भक्ति ईश्वर की
सदा निष्कपट भाव।
आदि प्रेममय
मध्य प्रेममय
अंत प्रेम रस पूर्ण।
घृणा नहीं है
किसी जीव से
है संतुष्ट विघूर्ण।।
मरें काम्य की
सभी वासना
मात्र ईश में चाव।
जब तक घेरें
जगत -वासना
उदय न होता प्रेम।
झूठी भक्ति
मूर्ति की पूजा
कुशल न कोई क्षेम।।
भक्ति कर्म से
ज्ञान ,योग से
सदा श्रेष्ठ है नाव।
ज्ञान भक्ति
अपनाएँ कोई
या हो योगाधार।
साधन साध्य
भक्ति है केवल
प्रेमादर्श विचार।।
मुक्ति और
उद्धार सभी का
हो जाता अलगाव।
भक्त चाहता
भक्ति अहैतुक
मैं ईश्वर दो एक।
प्रेम हेतु ही
प्रेम भक्ति में
इतना शेष विवेक।।
'शुभम्' भक्ति -सुख
है सर्वोपरि
एक यही ठहराव।
शुभमस्तु !
26.09.2024●2.15प०मा०
●●●
तोड़ें रखें न पास [ गीत ]
442/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
मूर्ति पुरानी
विश्वासों को
तोड़ें , रखें न पास।
ज्ञान बिना हो
मोक्ष - लाभ क्यों
तत्पर रहना मीत।
जन्म मृत्यु
के साथ भयों से
हम सब परे सभीत।।
श्रेयस है
आत्मा का उत्तम
उसका ज्ञान - प्रयास।
जिसको तू
'मैं' 'मैं' कहता है
तुझे न उसका ज्ञान।
नहीं पहुँचतीं
वहाँ इन्द्रियाँ
और विचार न भान।।
विषयी है वह
कभी ज्ञान का
विषय न होता भास।
इन्द्रिय -ज्ञान
ससीम तुम्हारा
कारण - कार्य प्रधान।
यह संसार
सत्य की छाया
सुख -दुख एक समान।।
'शुभम्' जगत
अभिव्यक्ति ईश की
कुछ यथार्थ का वास।
शुभमस्तु !
26.09.2024●1.00प०मा०
●●●
कर्म-लक्ष्य हो ज्ञान [गीत]
441/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
मिलता हर्ष
कर्म करने से
किंतु लक्ष्य हो ज्ञान।
बुनकर बया
बनाती अपना
सुघर घोंसला नेक।
बया - बुद्धि- सी
सोच रखें यदि
जागे सकल विवेक।।
आत्मा जगे
कर्म वह करना
करना अनुसंधान।
बंधन है
ब्रह्मांड हमारा
करना नहीं नकार।
करें कर्म
कारण की तह में
मिलता सुफल सकार।।
बुनता खाट
ध्यान से बुनकर
बाँधें वैसे बान।
महत लक्ष्य की
ओर प्रवृत्त हो
करना सदा प्रयास।
यही कहा है
संत शिरोमणि
है विवेक का वास।।
मानस -शक्ति
'शुभम्' कर बाहर
छेड़ें कर्म सु-तान।
शुभमस्तु !
26.09.2024●11.15आ०मा०
●●●
शरमया - सा घाम [नवगीत ]
440/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
पीपल की
फुनगी पर बैठा
शरमाया-सा घाम।
लौट रहे हैं
घर को पाखी
अपने-अपने नीड़,
बना कतारें
लंबी-लंबी
है अंबर में भीड़,
लगता है
दिन भर का निबटा
उदर-पूर्ति का काम।
लटकाए हैं
अपनी ग्रीवा
लौट रहे घर बैल,
थका स्वेद से
सिक्त कृषक अब
जाता अपनी गैल,
चटनी के सँग
रोटी खाता
फिर करता आराम।
मुनिया आकर
गले मिली है
मिला देह को चैन,
अम्मा की
कर रही शिकायत
मधुर तोतले बैन,
'शुभम्' आ रहा
करवा का दिन
ले प्रियतम का नाम।
शुभमस्तु !
26.09.2024●10.15आ०मा०
●●●
समय के साथ [अतुकांतिका]
439/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
समय के साथ
बदल जाना पड़ता है,
अन्यथा समय की दौड़ में
पिछड़ जाना पड़ता है,
समय के साथ चलें
इसी में समझदारी है,
वरना समय की
तलवार दुधारी है।
खड़े रह गए जो लोग
वे आज भी
वहीं के वहीं खड़े हैं,
कुचलती रही दूब
पैरों तले
और वे हो गए बरगद बड़े,
बरगद भी ऐसे
जो सबको
छायादान कर रहे हैं,
तप्त धूप में जो प्राणी
उनकी शरणगाह बन रहे हैं।
जिओ तो ऐसे जिओ
कि मानवता के लिए
निदर्शन बन जाओ,
किसी को बढ़ते हुए
देखकर मत चिढ़ जाओ,
मानव हो
मानवता का पाठ पढ़ो
मानवता में ढल जाओ।
'शुभम्' आगे बढ़ जाएँगे
राजमार्ग पर हस्ती,
और तुम नौ- नौ आँसू बहाओगे
देखोगे अपनी पस्ती,
देश और समाज में
जगह बनाना भी नहीं
इतनी सस्ती,
अंततः सड़क के श्वान
सड़क पर भौंकते ही
रह जाते हैं,
और वे हस्ती
अपनी मस्ती में आगे
बढ़ जाते हैं ।
शुभमस्तु !
26.09.2024●3.30 आ०मा०
●●●
बुधवार, 25 सितंबर 2024
कुशल काव्य का छंद [ दोहा ]
438/2024
[छंद,छप्पर,कुशल-क्षेम,मौसम,प्रस्ताव]
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सब में एक
चलती हो गजगामिनी, लगती कवि का छंद।
लय गति रसमय रंजिता, झरता मधु मकरंद।।
छंद बद्ध कविता करें, कुशल काव्य मर्मज्ञ।
मात्रिक वर्णिक ज्ञान से,कवि बन जाते विज्ञ।।
छप्पर - आच्छादन करें,पहले के सब लोग।
रहते उठते बैठते , नहीं व्यापते रोग।।
आँधी में छप्पर उड़ा, नर -नारी निरुपाय।
कैसे फिर छाजन पड़े,अधिक नहीं धन-आय।।
कुशल - क्षेम सबकी रहे,'शुभम्' यही सद्भाव।
दुखी न मानव मात्र हो, रखें न हृदय दुराव।।
कुशल - क्षेम लेते रहें, जिनसे हों सम्बंध।
नेह बढ़े नित मान भी, उड़ती सुमन - सुगंध।।
मौसम में बदलाव का, मिलता जब संकेत।
बदलें दिनचर्या सभी, मानव अपने हेत।।
मौसम की अठखेलियाँ, करते सभी पसंद।
नर - नारी खग ढोर भी,लता विटप भू कंद।।
नेह भरा प्रस्ताव है, यदि कर लें स्वीकार।
हे कामिनि गजगामिनी, जुड़ें हृदय के तार।।
मानें यदि प्रस्ताव को, हो परिणय सम्बन्ध।
मिलें एक से एक तो, ग्यारह की हो गंध।।
एक में सब
कुशल-क्षेम छप्पर छई,कुशल काव्य का छंद।
मधु मौसम प्रस्ताव है, पाटल का मकरंद।।
शुभमस्तु !
24.09.2024● 11.45 प०मा०
●●●
कच्ची सड़क गाँव की [ गीत ]
437/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
कच्ची सड़क
गाँव की गीली
सरपट दौड़ी जाए।
ऐंठे टेढ़े
सींग हिरन के
श्याम वर्ण का गात।
आया निकल
किसी जंगल से
करता हो ज्यों बात।।
देख सामने
वाहन भारी
तनिक नहीं भय खाए।
द्रुम की छाँव
सघन शीतल है
आच्छादित नभ आज।
आतुर बादल
बरसेंगे अब
सजें कृषक के साज।।
दोनों ओर
गैल के भारी
हरी घास ही छाए।
दोनों ओर
सड़क के पौधे
हरे - हरे संतृप्त।
पहने वसन
हरे ही शोभन
मौन खड़े हैं व्यस्त।।
'शुभम्' करे
संकेत हाथ से
हिरन शीघ्र हट पाए।
शुभमस्तु !
24.09.2024●8.45आ०मा०
●●●
सोमवार, 23 सितंबर 2024
कुँए में भाँग! या .... [ व्यंग्य ]
436/2024
© व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
कौन कहता है कि इस देश के नेता भ्रष्ट हैं,असत्यनिष्ठ हैं,अनिष्ठ हैं और न जाने क्या -क्या हैं ! इसी प्रकार के दोषारोपण यहाँ के अधिकारियों पर भी जी भर -भर कर लगाए जाते हैं कि वे अपनी तिजोरियाँ भर रहे हैं।कार्यों को लम्बित करने के विशेषज्ञ हैं।केवल अपनी कोरी शान के अहंकार में जनता जनार्दन को घास नहीं डालते।सारे देश का भार इन्हीं नेताओं और अधिकारियों के कंधों पर ही तो रखा हुआ है,इसके बावजूद आप इन्हें पानी पी पीकर कोसते हैं। प्रश्न यह है कि फिर यह देश चल कैसे रहा है। अंततः सब कुछ दारोमदार इन्हीं के ऊपर तो निर्भर है,फिर भी आप उन पर आरोप लगाने से बाज नहीं आते।ऐसा क्यों ?
आप यह अच्छी तरह से जानते और समझते हैं कि ये नेता, मंत्री, विधायक,सांसद,बड़े-बड़े प्रशासक ,पुलिस आदि आते कहाँ से हैं! जिस समाज में हम आप और अन्य सभी तथा ये अधिकारी और नेता जन्म लेते,पलते,बढ़ते,चढ़ते,देश और समाज के नाम मढ़े और गढ़े जाते हैं,वह कोई आसमान से तो नहीं गिरा। सब इसी खेत की फसल हैं। जैसा पेड़ होगा, वैसा ही उसका उत्पादन भी होगा। उसके गुणसूत्र,आर एन ए,डी एन ए आएँगे कहाँ से? जब धरती के सारे कुओं में भाँग घोली गई थी,तो कोई प्रदेश, शहर,गाँव,घर,झोंपड़ी छोड़ा नहीं गया था।सब में भाँग का बीज -वपन समान रूप से किया गया था।भाँग के बीज ने इतनी अधिक लोकप्रियता प्राप्त कर ली कि यह जानना समझना ही मुश्किल हो गया कि भाँग में कुँआ है या कुएँ में भाँग है! परिणाम सामने है कि देश में यहाँ - वहाँ, जहाँ -तहाँ भाँग की बाड़ ही लग गई और सारा देश और समाज, नगर ,गाँव,भवन,महल, अट्टालिकाएँ,सरकारी ,गैर सरकारी, संस्थान भंग -बाड़ की बाढ़ में बह गया।
जब हर नर -नारी के खून में भ्रष्टता बहरा रही है,प्रदूषण गहरा रहा है ,तो दूध के धुले हुए नेता और अधिकारी आएँगे कहाँ से? कहाँ तो चाय भर के लिए तो शुद्ध दूध मिलना संभव नहीं है और आपको दूध - स्नात नेता और अधिकारी चाहिए ?जिस देश का भैंस वाला/वाली पानी में दूध दुहता हो,उस देश के भैंस मालिकों से आशा भी क्या की जा सकती है !लड्डुओं में चर्बी, धनिया चूर्ण में गधे की लीद, हल्दी में रंग, सरसों के तेल में पाम ऑइल,सोने में पीतल आदि, मिलाए जाने का संस्कार जन्मजात और आम हो,उस देश की जनता और उससे ही जन्मे नेताओं और अधिकारियों से शुद्धता और निष्ठता की आशा करना नाइंसाफी होगी।जब यहाँ का आदमी और औरत ही शुद्ध नहीं ,तो नेता और अधिकारी में शुद्धता खोजना चील का मूत लाने की तरह असम्भव कार्य है।अब कहीं भी शुद्धता मिलना एक भंग स्वप्न ही है।बेचारा सबका अन्नदाता किसान भी अब काजर की कोठरी में काला हो गया।उसे भी जहर मिलाकर सब्जियाँ और फल बेचने पड़ते हैं।किसान भी तो वही भाँग जन्य संतान है।वह उसके नशे से कैसे बच सकता है !
ईमान ,निष्ठता,पवित्रता,शुद्धता आदि कुछ ऐसे शब्द हैं,जिन्हें हिंदी शब्दकोष से ससम्मान विदा कर देना ही चाहिए। अब ये और ऐसे ही बहुत सारे शब्द इतिहास बन चुके हैं,'आउटडेटेड' हो चुके हैं।इतिहास में लिखा जाएगा कि इन शब्दों का भी कभी अस्तित्व था।ये है उनकी 'ममी ' जो शब्दकोष रूपी अजायबघर में सुशोभित हो रही है।
भारत की भूमि संस्कारों की भूमि है।यही कारण है कि हम इनका विशेष सम्मान करते हैं और उनके पद और नामों से पूर्व 'माननीय' विशेषण के बिना एक वाक्य भी उच्चरित नहीं करते हैं।अधिकारी यदि मान्यवर हैं तो ये माननीय।किन्तु जन्मजात संस्कार से पीछा कैसे छुड़ाएं।इस देश में बस एक ही आदमी ऐसा है जो तथाकथित 'प्रदूषण' से मुक्त है। वह व्यक्ति वही हो सकता है,जिसे प्रदूषण और भ्रष्टता का सुअवसर न मिला हो। वही बेचारा दावे के साथ हुंकार भर सकता है कि वह दूध का धुला और बेदाग है। निरमा पाउडर की तरह उसका कुर्ता सफेद झाग है।इसीलिए तो वह रहता बाग-बाग है। भ्रष्टता में निम्मजित नहीं वह कोई काला नाग है। वह भले ही बे-चारा है तो क्या ! जो बा-चारा हैं; उनसे भी अधिक उसकी तेज आग है।बस वही एक आदमी है। उसी एक आदमी को पहचान लिया गया है। उसके तो कदम कदम में 'प्रयागराज' और 'गया' हैं।
भाँग का नशा भी अपने में विचित्र है। शेष नहीं बचता वहाँ नर-नारी का चरित्र है।ये भाँग नहीं है,अजब गजब- सा इत्र है।जहाँ न कोई अपना सगा है ;न इष्ट - मित्र है। बस नशा ! नशा !! और नशा!!! इस नशा से भला कौन है बचा ? नहीं करता चिंता नेता या अधिकारी कि इसकी भी है कोई सजा ! बस उठाए रखता है भाँग की झंडी की ध्वजा ! स्वयं के संग -संग परिवार और उनकी सात -सात पीढ़ियाँ मारती हैं मज़ा।भाँग तो भाँग है,इसके मजे में कोई फ़िक्र नहीं कि सिर मुड़ जाय या टूट जाए टाँग है! इस नशे में सब कुछ सही ही सही है ,न कुछ रोंग है।कुँआ ही भाँग में पड़ा हुआ है, इसलिए गा रहे नेता अधिकारी मिलजुलकर समवेत सॉन्ग हैं।
शुभमस्तु !
23.09.2024● 7.30 प०मा०
●●●
देश -देश चिल्ला रहे [दोहा गीतिका]
435/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
देश - देश चिल्ला रहे, चलें चाल प्रतिकूल।
नेतागण इस देश के, नित्य बो रहे शूल।।
जिसकी पूँछ उठाइए, निकला मादा शुद्ध,
ज्ञात हुआ यह बाद में,चुनने में की भूल।
कूड़ा - क्षेपण की नहीं, जहाँ योग्यता लेश,
ग्रीवा में उसकी पड़े, नव पाटल के फूल।
दूषित चाल - चरित्र हैं, लूट रहे नित देश,
उनसे आशा व्यर्थ है, फेंकें काट समूल।
आशाएँ धूमिल हुईं, खेवनहारे चोर,
सुमन खिलें आशा यही ,उगने लगे बबूल।
जनता सारी भेड़ है, चलती आँखें मूँद,
चले न सोच विचार के,चलती ऊलजलूल।
'शुभम्' न भावी देश की,उज्ज्वल लगती आज,
झूठ मिलावट लीन जो,शेष न एक उसूल।
शुभमस्तु !
23.09.2024◆6.00आ०मा०
●●●
शेष न एक उसूल [सजल]
434/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
समान्त :ऊल
पदांत : अपदांत
मात्राभार :24
मात्रा पतन : शून्य
देश - देश चिल्ला रहे, चलें चाल प्रतिकूल।
नेतागण इस देश के, नित्य बो रहे शूल।।
जिसकी पूँछ उठाइए, निकला मादा शुद्ध।
ज्ञात हुआ यह बाद में,चुनने में की भूल।।
कूड़ा - क्षेपण की नहीं, जहाँ योग्यता लेश।
ग्रीवा में उसकी पड़े, नव पाटल के फूल।।
दूषित चाल - चरित्र हैं, लूट रहे नित देश।
उनसे आशा व्यर्थ है, फेंकें काट समूल।।
आशाएँ धूमिल हुईं, खेवनहारे चोर।
सुमन खिलें आशा यही ,उगने लगे बबूल।।
जनता सारी भेड़ है, चलती आँखें मूँद।
चले न सोच विचार के,चलती ऊलजलूल।।
'शुभम्' न भावी देश की,उज्ज्वल लगती आज।
झूठ मिलावट लीन जो,शेष न एक उसूल।।
शुभमस्तु !
23.09.2024◆6.00आ०मा०
●●●
शनिवार, 21 सितंबर 2024
खबरों की 'खुशबू' बनाम खबरी [ व्यंग्य ]
433/2024
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
देश विदेश के नित्य के समाचार संदेश देने वाले हमारे अखबार वाले ये न समझें कि उनसे बड़ा कोई खबरी नहीं है।आप तो करोड़ों के छापाखाने स्थापित करके अरबों कमाने के फेर में समाचारों का प्रसारण छाप - छापकर हमारे पास पहुँचाते हो।आपका उद्देश्य तो सामाचार प्रसारण के साथ -साथ नाम और नामा कमाने का है ही।इसके विपरीत हमारे सभी गली-मोहल्लों में ऐसे - ऐसे समाजसेवी और समाज सेविकाएँ भी हैं, जो नित्य प्रति निःशुल्क खबरें प्रसारित कर नाम कमा रहे हैं।उनका काम ही है कि वे सुबह से शाम तक खबरों को सूंघें,चाटें, चुभलाएँ,चबाएँ और दर-दर घर- घर पहुचाएं। कितना बड़ा पुण्य का कार्य वे कर रहे हैं। और उधर एक आप भी हैं जो किसी की भैंस और किसी की कुतिया के खोने की खबर हमारे पास पहुँचाने का पुण्य अर्जित कर रहे हैं। आपके विस्तार के अनुसार आपकी खबर सीमा भी व्यापक है।आप तो आर्थिक, सामाजिक और सबसे ज्यादा राजनैतिक ख़बरें नमक मिर्च लगा- लगा कर जनता की जीभें चटपटी बनाने में लगे हुए हैं।
आपकी तुलना में उनकी सेवा सदा निस्वार्थ है। उन्हें तो यही आदत है,जुनून है ,जोश है या जज़्बा है ;कुछ भी कह लीजिए कि उनके पेट में इतनी जगह नहीं कि वे बात को उसमें सँभाल कर रख सकें अथवा वे उसे पचा सकें।इसलिए उसका मुख के माध्यम से खबर -विरेचन अनिवार्य हो जाता है। एक बात यह भी है कि वे बेचारे/बेचरियाँ स्व -उदर में संभालें तो आखिर कब तक संभालें? सँभालने की सीमा ससीम होने के कारण उनका विरेचन भी अनिवार्य हो जाता है।यह बात भी एकदम सत्य है कि अगले दिन की खबरें कहाँ रख पाएँगे ,इसलिए दूसरों को सुनाकर अपने तन और मन का बोझ हलका कर लेते हैं।यह उचित भी है।इस काम में कुछ सासें साँस रोक- रोक कर लगी हुई हैं और समाज ,गली ,मोहल्ले का पुण्य अर्जित कर रही हैं। वे अखबारों की तरह खबर -वमन कर निवृत्त नहीं हो लेतीं ,वरन बाकायदे रस ले लेकर उनकी समीक्षा भी करती हैं। कुछ ननदें भी इस निःशुल्क ख़बर प्रसारण में विशेषज्ञता प्राप्त हैं।जैसे किसी की कुतिया इंग्लैंड रिटर्न होकर आती है तो उसका महत्त्व भी बढ़ जाता है ,वैसे ही कुछ ननदों का महत्त्व भी पति -गृह रिटर्न के बाद सौ गुणा हो लेता है।यह तो वैसे ही है जैसे मास्टर डिग्री के बाद किसी ने सीधे डी.लिट्.ही कर डाली हो।
गरमा - गरम खबरों को पढ़ने के बजाय जो विशेषानंद खबरों को सुनने- सुनाने और रस भरी विस्तृत समीक्षा में वह भला अन्यत्र कहाँ है?इससे आलोचक की अपनी 'सद्भावना' भी प्रकट हो जाती है और उसके प्रति सकारात्मक या नकारात्मक रुख भी उदघाटित हो जाता है।समय का इससे उत्तम सदुपयोग भला और हो भी कैसे सकता है। इसीलिए तो कुछ समाजी 'शुभचिन्तिकाएँ' भोर होते ही दर-दर का रुख करती हुई और चाय के गर्म प्याले की भाप के बीच सुर्ख होती हुई दिखलाई पड़ ही जाती हैं।कुछ 'समाज -चिन्तिकाओं' को यह गुण जन्मजात उनकी घुट्टी में घोट - घोट कर पिलाया जाता है और वह पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परागत रूप से चलता रहता है।इस मामले में कुछ 'महा-पुरुष' भी कम नहीं हैं।किंतु उनका प्रतिशत इन 'महा-मानवियों' की तुलना में नगण्य है। उन्हें यह 'सद्गुण' 'प्राकृतिक समीक्षिका' के रूप में सहज रूप में प्राप्त जो है।बिना इस कार्य को अंजाम दिए हुए उनकी रोटी ही हजम नहीं होती। करें भी तो क्या करें। यह उनका स्वभाव ही बन गया है।
चिंतन की गहराई में उतरने पर पता चलता है कि हो न हो खबरों को छाप -छाप कर फैलाने ,छितराने और बिखराने का 'महत कार्य' किसी 'महानारी' की ही देन है। जो आज सारे संसार में व्याप्त है। किंतु उसका पारम्परिक और रूढ़ रूप आज भी अपने उसी मूल रूप और स्वरूप में जिंदा है। यह खबर की खबरों का एक उत्तम पहलू ही है। अन्यथा आज के डिजिटल युग में ऐसी बहुत सारी परंपराएं दम तोड़े बैठी हैं और रही - सही मरती चली जा रही हैं।धन्य है वह अज्ञात प्रथम 'महानारी' जिसने समाचार प्रसारण प्रणाली को जन्म दिया। इसके अति आधुनिकीकरण का परिणाम सामने है कि जितनी अच्छी न्यूज रीडर और एंकर नारियाँ हैं,उतनी सफलता पुरुषों ने प्राप्त नहीं की है। कभी - कभी उनकी वाक -चातुरी और वंदे मातरम स्पीड को देखकर हम पुरुषों को ईर्ष्या होने लगती है। कुदरत ने उनके गले और देह में ऐसा कौन -सा विशेष यंत्र फिट कर दिया है कि हम भी उनसे लोहा लेने के लिए विवश हैं।
खबरों को सुनना और सुनाना मानव जाति का एक विशेष गुण है।उसकी इसी प्रवृत्ति ने अखबार की ईजाद की ।अब वह अपने मूल स्वरूप 'वाङ्गमय' और लिखित स्वरूप अखबार और डिजिटल स्वरूप में टीवी, वीडियो, ऑडियो आदि में विस्तार पा रही हैं।अपने सुख-दुःख,हर्ष -विषाद,हार-जीत, उत्थान -पतन,युद्ध ,शांति,धन, दौलत,प्रशंसा, स्तुति,पूजा,पाठ, अर्चना,भजन,विवाह,शादी,प्री मैरिज, अर्थ,धर्म, काम सबका सार्वजनिकीकरण करना चाहता है।कहीं कुछ भी गोपनीय नहीं ।सब कुछ खुली किताब। आओ और देख जाओ। 'जिज्ञासा' का विशेष गुण किसी गधे -घोड़े ,बैल -गाय, बकरी -सुअर, कुत्ते - बिल्ली ,तोता- मैना,मछली -ऊदबिलाव,शेर - वानर में हो या न हो, किन्तु मनुष्य मात्र में जन्मजात है।इसीलिए वह किसी के फटे में अपनी टाँग अड़ाना भी बखूबी जनता है।और अड़ी हुई टाँग की खबर को रस ले लेकर उड़ाना भी खूब जानता है। जमाने की 'खबरों की खुशबू' की बात ही निराली है। इसीलिए तो उसकी जन्मदात्री मेरी या आपकी घर वाली है।खबरें जल्दी से जल्दी फैलें ,इसकी उन्हें उतावली है। इनमें गरम मसाला भी है, और सादा सलादी भी हैं। कुछ बड़ी -बड़ी फौलादी भी हैं। रंगीन भी होती हैं कुछ खबरें, और अच्छे अच्छों के रंग भी उतार देती हैं खबरें! खबरों का संसार ही अनौखा है। ख़बर-चाटुओं ने दिन भर अख़बार को चाटा है। ऐसा भी है कि कुछ ऐसे भी जन हैं,जिन्हें जगत की गतियों से कोई फर्क नहीं पड़ता है।उनके लिए तो बहुत पहले ही कह दिया गया है : 'सब ते भले वे मूढ़ जन ,जिन्हें न व्यापे जगत गति।'
शुभमस्तु !
21.09.2024● 9.15आ०मा०
●●●
शुक्रवार, 20 सितंबर 2024
उधेड़ -बुन [अतुकांतिका]
432/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
'उधेड़' के संग 'बुन' का
विरोधाभास
बना रहे,
पर साथ - साथ हैं।
अँधेरे के बिना
उजाला भला
जी पाएगा कब तक?
अस्तित्त्व ही क्या है!
अधर्म के बिना धर्म!
पाप के बिना पुण्य!
निर्धन के बिना धनिक!
महत्त्व ही क्या है?
मरण के साथ
जीवन का
अटूट है रिश्ता ।
शैतान का
जोड़ीदार है फरिश्ता,
उधड़ेगा नहीं तो
बुना क्या जाएगा?
शुभमस्तु !
19.09.2024●11.45आ०मा०
●●●
बुधवार, 18 सितंबर 2024
श्रम का फल मीठा सदा [ दोहा ]
431/2024
©शब्दकार
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
[भूख,रोटी,मजदूर,श्रम,सत्ता]
सब में एक
तन - मन की हर भूख के,साधन सुलभ हजार।
कर्मशील पाते उन्हें, उनको विविध प्रकार।।
भूख बिना आनंद क्या,भोजन का हे मीत।
सूखी भी रोटी मिले, लेती व्यंजन जीत।।
रोटी के पीछे फिरे, भ्रमित सकल संसार।
करता नीति - अनीतियाँ,भूख उदर का भार।।
मिले एक रोटी भले,अर्जित श्रम से नेक।
नहीं चाहिए और की, लगी झूठ की टेक।।
स्वेद बहाए देह का, करता श्रम मजदूर।
जीवन में सबको नहीं, मिले भाग्य भरपूर।।
काम कठिन मजदूर का,फिर भी सदा अभाव।
घरनी को साड़ी नहीं, डूब रही गृह - नाव।।
श्रम का फल मीठा सदा,पाना है जो मित्र।
इतना स्वेद बहाइए, महक उठे ज्यों इत्र।।
अर्जित श्रम से रोटियाँ, देतीं सुख - संतोष।
सोना भी देता नहीं, भरा अन्य का कोष।।
नेता सत्ता- भूख का ,होता है पर्याय।
देशभक्ति के ढोंग से, बढ़ा रहा धन - आय।।
केंचुल ओढ़े भक्ति की, सत्ता में नर लिप्त।
जनता के द्वारा वही, हो जाते उत्क्षिप्त।।
एक में सब
तिकड़म से सत्ता मिले, श्रम से मिटती भूख।
रोटी हो मजदूर को, जल चाहे ज्यों रूख।।
शुभमस्तु !
18.09.2024●7.00आ०मा०
●●●
मनुज देह सब कुछ नहीं [ दोहा गीतिका ]
430/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
परहिताय जीना जिसे,जीवन वह उपहार।
परजीवी जो जीव हैं, उनके विविध प्रकार।।
मनुज देह सब कुछ नहीं,उसमें भी हैं ढोर,
कर्म धर्म कारण सदा,करना प्रथम विचार।
जब तक जीवन डोर से,बँधा हुआ नर जीव,
नश्वर तन का मोल क्या,जुड़ा हुआ है तार।
पर सम्पति पर दृष्टि है, पर नारी की चाह,
बना लिया है व्यक्ति ने, जीवन कारागार।
गली - गली में श्वान भी, बन जाते हैं शेर,
पूज्य सदा विद्वान ही, सभी खुले हैं द्वार।
हाथी जाते राह में, श्वान भौंकते खूब,
करें वही करणीय जो,पड़े देह पर मार ।
बारंबार विचारिए, जब करना हो काम,
'शुभम्' न धोखा हो कभी,रवि हो या शनिवार।
शुभमस्तु !
16.09.2024● 2.00 प०मा०
●●●
बारंबार विचारिए [सजल]
429/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
समांत : आर
पदांत : अपदांत
मात्राभार :24.
मात्रा पतन : शून्य
परहिताय जीना जिसे,जीवन वह उपहार।
परजीवी जो जीव हैं, उनके विविध प्रकार।।
मनुज देह सब कुछ नहीं,उसमें भी हैं ढोर।
कर्म धर्म कारण सदा,करना प्रथम विचार।।
जब तक जीवन डोर से,बँधा हुआ नर जीव।
नश्वर तन का मोल क्या,जुड़ा हुआ है तार।।
पर सम्पति पर दृष्टि है, पर नारी की चाह।
बना लिया है व्यक्ति ने, जीवन कारागार।।
गली - गली में श्वान भी, बन जाते हैं शेर।
पूज्य सदा विद्वान ही, सभी खुले हैं द्वार।।
हाथी जाते राह में, श्वान भौंकते खूब।
करें वही करणीय जो,पड़े देह पर मार ।।
बारंबार विचारिए, जब करना हो काम।
'शुभम्' न धोखा हो कभी,रवि हो या शनिवार।।
शुभमस्तु !
16.09.2024● 2.00 प०मा०
●●●
मेरा भारत [बालगीत]
428/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
अद्भुत अनुपम भारत मेरा।
प्रचुर सम्पदा का शुभ घेरा।।
कलरव करतीं यमुना गंगा।
फहराता है सदा तिरंगा।।
देव - देवियाँ करतीं फेरा।
अद्भुत अनुपम भारत मेरा।।
उत्तर दिशि में हिमगिरि प्रहरी।
झीलें हैं शीतल शुभ गहरी।।
हिंद महासागर दखिनेरा।
अद्भुत अनुपम भारत मेरा।।
'शुभम्' सघन फसलें लहरातीं।
वेश अनेक रूप रँग जाती।।
हिंदी से हो नित्य सवेरा।
अद्भुत अनुपम भारत मेरा।।
शुभमस्तु !
16.09.2024◆10.45आ०मा०
★★★
सड़क [ बालगीत ]
427/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
अपनी मंजिल तक पहुँचाती।
सरके नहीं सड़क कहलातीं।।
दिन - रातों में चलते राही।
यात्रा करें सभी मनचाही।।
वहीं पड़ी वह कहीं न जाती।
सरके नहीं सड़क कहलाती।।
उबड़ - खाबड़ गर्त हजारों।
बाइक ट्रक बस दौड़ें कारों।।
नहीं किसी को दर्द बताती।
सरके नहीं सड़क कहलाती।।
'शुभम्' न खबर ले रहे नेता।
कहता है मैं ही मैं देता।।
चलते तो नानी सुधि आती।
सरके नहीं सड़क कहलाती।।
शुभमस्तु !
16.09.2024◆10.15 आ०मा०
★★★
अलाव जलाएँ [ बालगीत ]
426/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
बढ़ती ठंड अलाव जलाएँ।
तापें आग हर्ष हम पाएँ।।
दादी माँ को शीत सताए।
ठिठुर - ठिठुर कम्बल में जाए।।
गरमी का कुछ सृजन कराएँ।
बढ़ती ठंड अलाव जलाएँ।।
काँप रहे हैं बाबा थर - थर।
झरती ओस गगन से झर - झर।।
उनको भी तो अब गरमाएँ।
बढ़ती ठंड अलाव जलाएँ।।
'शुभम्' बिलोती दधि को अम्मा।
जला दिये की पतली शम्मा।।
उन्हें देह पर शॉल उढ़ाएँ।
बढ़ती ठंड अलाव जलाएँ।।
शुभमस्तु !
16.09.2024◆9.45 आ०मा०
★★★
भा रही रजाई [बालगीत]
425/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
शीत बढ़ी भा रही रजाई।
मौसम ने अब ली अँगड़ाई।।
शी - शी करतीं दादी नानी।
नहीं सुहाता शीतल पानी।।
दिन में धूप भरे गरमाई।
शीत बढ़ी भा रही रजाई।।
लेकर स्वाद गज़क हम खाते।
शकरकंद भी हैं मनभाते।।
मूँगफली नित सुरुचि चबाई।
शीत बढ़ी भा रही रजाई।।
सौंधी है सरसों की भुजिया।
धूप सुहाती अपनी बगिया।।
स्वेटर की चल रही बुनाई।
शीत बढ़ी भा रही रजाई।।
शुभमस्तु !
16.09.2024◆9.30 आ०मा०
★★★
दिया [बालगीत]
424/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
दिया तेल बत्ती का नाता।
मेरे मन में अतिशय भाता।।
कुम्भकार ने दिया बनाया।
गर्म अवा की आँच तपाया।।
लाल रंग में वह सज जाता।
दिया तेल बत्ती का नाता।।
देता ज्योति दिया कहलाए।
अँधियारे को दूर भगाए।।
प्रति पल एक सबक दे जाता।
दिया तेल बत्ती का नाता।।
'शुभम्' दिया- से हम बन जाएँ।
सारे जग में ज्योति जगाएँ।।
सबको सुखद उजाला भाता।
दिया तेल बत्ती का नाता।।
शुभमस्तु !
1.609.2024◆9.00आ०मा०
★★★
[9:30 am, 16/9/2024] DR BHAGWAT SWAROOP:
पेड़ों का हत्यारा [ बालगीत ]
423/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
मानव पेड़ों का हत्यारा।
स्वार्थ साधता तरु के द्वारा।।
पाल पोस कर उन्हें बढ़ाता।
चीर डालता है कटवाता।।
बना रहा विटपों की कारा।
मानव पेड़ों का हत्यारा।।
कुर्सी मेज बैड बनवाता।
काट - काट कर काठ सजाता।।
वृक्षों का दे झूठा नारा।
मानव पेड़ों का हत्यारा।।
पलने से मरघट तक लकड़ी।
बात बनाए अपनी बिगड़ी।।
जैसे चाहा वैसे मारा।
मानव पेड़ों का हत्यारा।।
शुभमस्तु !
16.09.2024◆8.15 आ०मा०
★★★
हाथी की सवारी [ बालगीत ]
421/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
चलो साथियो हाथी आया।
जिसने देखा वह चकराया।।
खंभे जैसी उसकी टाँगें।
कुत्ते देख भौंकते भागें।।
लम्बी सूँड़ हिलाता पाया।
चलो साथियो हाथी आया।।
हाथी का तन मानो कमरा।
आता देख दूर से सँवरा।।
झाड़ू - सी दुम रहा हिलाया।
चलो साथियो हाथी आया।।
हाथी की हम करें सवारी।
'शुभम्' रंग काला शुभकारी ।।
दो - दो फुट का दाँत दिखाया।
चलो साथियो हाथी आया।।
शुभमस्तु !
16.09.2024◆7.15आ०मा०
★★★
जंगल में मंगल [ बालगीत ]
420/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
जंगल में मंगल कर आएँ।
चलो साथियो नाचें - गाएँ।।
घनी झाड़ियाँ काँटों वाली।
बजा रहीं पत्तों की ताली।।
काँटे नहीं कहीं चुभ जाएँ।
जंगल में मंगल कर आएँ।।
ऊँची - नीची भी कँकरीली।
ऊबड़ - खाबड़ भूमि वनीली।।
हाथ - पैर को शीघ्र बचाएँ।
जंगल में मंगल कर आएँ।।
'शुभम्' एक बहती है सरिता।
करें नहान थकन की हरिता।।
पके हुए फल ढूँढ़ें खाएँ।
जंगल में मंगल कर आएँ।।
शुभमस्तु !
16.09.2024◆3.30 आ०मा०
★★★
नभ के तारे [ बालगीत ]
419/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
कुछ - कुछ कहते नभ के तारे।
हमें मिटाने हैं अँधियारे।।
हिल-मिल कर हमको है रहना।
सदा एकता अपना गहना।।
लाने हैं नभ में उजियारे।
कुछ - कुछ कहते नभ के तारे।।
जितनी भी हो शक्ति लगाना।
रजनी को दिन - सा चमकाना।।
बनें चाँद - सूरज के प्यारे।
कुछ - कुछ कहते नभ के तारे।।
'शुभम्' नहीं कमजोर जानना।
करना है हर हाल सामना।।
सबके ही हों सदा दुलारे।
कुछ - कुछ कहते नभ के तारे।।
शुभमस्तु !
16.09.2024◆3.00आ०मा०
★★★
सरिताएँ [ बालगीत ]
418/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सरिताओं में जीवन बहता।
भूखा -प्यासा एक न रहता।।
हरित धरा की जीवन रेखा।
गङ्गा यमुना हमने देखा।।
नर - नारी तरु कष्ट न सहता।
सरिताओं में जीवन बहता।।
गेहूँ धान मटर की फसलें।
पौधे पेड़ मनुज की नस्लें।।
पशु खग सबका हित जग कहता।
सरिताओं में जीवन बहता।।
'शुभम्' न डालें मैला कचरा।
बढ़ता है जीवन को खतरा।।
जी जाता है जो जन दहता।
सरिताओं में जीवन बहता।।
शुभमस्तु !
16.09.2024 ◆2.30 आ०मा०
★★★
तिरंगा [ बालगीत ]
417/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
राष्ट्र ध्वजा तप तेज तिरंगा।
बहे धरा पर पावन गंगा।।
सदा सत्य जो बरसाता है।
नर - नारी को हर्षाता है।।
स्वस्थ सबल है शोभन चंगा।
राष्ट्र ध्वजा तप तेज तिरंगा।।
केसरिया रँग शौर्य समानी।
श्वेत मध्य का शांति सुदानी।।
उर्वरता में हरित उमंगा।
राष्ट्र ध्वजा तप तेज तिरंगा।।
'शुभम्' न झुके तिरंगा अपना।
पूरा करे देश निज सपना।।
रहे न कोई भूखा - नंगा।
राष्ट्र ध्वजा तप तेज तिरंगा।।
शुभमस्तु !
16.09.2024◆2.00आ०मा०
★★★
गुलाब [ बालगीत ]
416/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
मैं पाटल गुलाब कहलाता।
काँटों में सुगंध बिखराता।।
पीला नीला लाल गुलाबी।
बहुतेरे रँग हैं नायाबी।।
उपवन में क्यारी में छाता।
मैं पाटल गुलाब कहलाता।।
देवों के सिर पर मैं चढ़ता।
अपनी कीर्ति कहानी गढ़ता।।
जो छूता उसको महकाता।
मैं पाटल गुलाब कहलाता।।
'शुभम्' मनुज ग्रीवा में सजता।
निज सुगंध मैं कभी न तजता।।
कभी न यश पाकर इतराता।
मैं पाटल गुलाब कहलाता।।
शुभमस्तु !
16.09.2024◆1.15 आ०मा०
★★★
नया सवेरा [ बालगीत ]
415/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
बीती रात मिटा तम - घेरा।
हुआ उजाला नया सवेरा।।
बिस्तर छोड़ चलो उठ जाएँ।
मात-पिता को शीश झुकाएँ।।
प्रभु का नाम जपें बहुतेरा।
हुआ उजाला नया सवेरा।।
लाल रंग का सूरज चमका।
पाटल फूल बाग में गमका।
मुर्गा करे गली में फेरा।
हुआ उजाला नया सवेरा।।
चीं चीं - चीं चीं चिड़ियाँ बोलीं।
कलियों ने निज आँखें खोलीं।।
कोकिल कुहके करती रेरा।
हुआ उजाला नया सवेरा।।
'शुभम्' शीघ्र जा खूब नहाएँ।
कर तैयारी शाला जाएँ।।
फेरें पाठ नहीं यदि फेरा।
हुआ उजाला नया सवेरा।।
शुभमस्तु !
15.09.2024◆8.30 प०मा०
★★★
पानी की कहानी [ बालगीत]
414/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सुनते हैं अनमोल कहानी।
कहते हैं सब जिसको पानी।।
अणु दो हाइड्रोजन के होते।
संग एक ऑक्सीजन ढोते।।
सबके प्राण बचाए दानी।
कहते हैं सब जिसको पानी।।
सागर सरिता झीलें सरसी।
बादल से जो बूँदें बरसी।।
सहज सुलभ सबको सम्मानी।
कहते हैं सब जिसको पानी।।
जलचर थलचर नभचर नाना।
सबका यह विश्वास पुराना।।
'शुभम्' बहुत हैं जल के मानी।
कहते हैं सब जिसको पानी।।
शुभमस्तु !
15.09.2024 ◆7.45प०मा०
★★★
सूरज दादा मौन विचरते [ बालगीत ]
413/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सूरज दादा मौन विचरते।
पल की एक न देरी करते।।
संग उषा के प्रति दिन आते।
संध्या के सँग विदा कराते।।
रजनी के सँग निशि भर रहते।
सूरज दादा मौन विचरते।।
कभी ताप से धरा जलाते।
शीत काल में ताप सिराते।।
भले ठंड से खग पशु मरते।
सूरज दादा मौन विचरते।।
'शुभम्' पकाते फसलें तुम ही।
फूल खिलाते जग के सब ही।।
भू में सोना रजत सँवरते।
सूरज दादा मौन विचरते।।
शुभमस्तु !
15.09.2024◆7.15प०मा०
★★★
पूजनीय गौ माता [ बालगीत ]
412/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
पूजनीय अपनी गौ माता।
सनातनी हिन्दू ही ध्याता।।
अमृत जैसा दूध तुम्हारा।
हमें बड़ा ही मिला सहारा।।
भक्त तुम्हारा सब कुछ पाता।
पूजनीय अपनी गौ माता।।
कोटि तैंतीस देवता वास।
तन में बसते सत्य न हास।।
जहाँ रहे सुख संपति पाता।
पूजनीय अपनी गौ माता।।
'शुभम्' बने थे श्रीहरि ग्वाला।
गोपालक यशुदा के लाला।।
भक्ति गाय की में मैं राता।
पूजनीय अपनी गौ माता।।
शुभमस्तु !
15.09.2024 ◆6.45प०मा०
★★★
भारत माँ की महिमा न्यारी [बालगीत]
411/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
भारत माँ की महिमा न्यारी।
हमें देश की मिट्टी प्यारी।।
बहतीं सरिता यमुना गंगा।
उत्तर में हिमगिरि है चंगा।।
दक्षिण हिंद सिंधु जल खारी।
भारत माँ की महिमा न्यारी।।
लहराती फसलों की खेती।
गन्ना धान चना बहु जेती।।
बेला पाटल की फुलवारी।
भारत माँ की महिमा न्यारी।।
नवल तिरंगा शुभ लहराए।
गीत एकता के हम गाए।।
दुश्मन से मत करना यारी।
भारत माँ की महिमा न्यारी।।
शुभमस्तु !
15.09.2024◆6.15प०मा०
★★★
इंद्रधनुष [बालगीत]
410/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
इंद्रधनुष मोहक सतरंगा।
लगता नील गगन की गंगा।।
वर्षा ऋतु का दृश्य मनोहर।
चमक रहा रंगों में शुभकर।।
शांत मौन अध वक्रिम चंगा ।
इंद्रधनुष मोहक सतरंगा।।
मेरी आँखों को अति भाता।
बिना शब्द मानो बतियाता।।
लेटा हो ज्यों एक कुरंगा।
इंद्रधनुष मोहक सतरंगा।।
'शुभम्' सूक्ष्म कण जल के शोभन।
बाँट रहे ज्यों अंबर को धन।।
लेटा वसन वसन बिना जो नंगा।
इंद्रधनुष मोहक सतरंगा।।
शुभमस्तु !
15.09.2024◆5.45प०मा०
★★★
मेघ बरसते [ बालगीत ]
409/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
मेघ बरसते चलो नहाएँ।
अधनंगे हो धूम मचाएँ।।
घटा छा रही नभ में काली।
निकलें बजा - बजा हम ताली।।
दादी - बाबा देख न पाएँ।
मेघ बरसते चलो नहाएँ।।
बिजली चमक रही है कड़-कड़।
बादल गरज रहे हैं गड़ - गड़।।
दोनों ही हमको डरवाएँ।।
मेघ बरसते चलो नहाएँ।।
'शुभम्' चलें हम छत पर सारे।
नहा सकेंगे मिलकर प्यारे।।
वर्षा - गीत नाच कर गाएँ।
मेघ बरसते चलो नहाएँ।।
शुभमस्तु !
15.09.2024◆3.30प०मा०
★★★
सावन के घन [बालगीत]
408/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सावन में घन झर - झर बरसे।
हरियाली से धरती सरसे।।
रिमझिम - रिमझिम झरती बूँदें।
गिरे आँख पर आँखें मूँदें।।
पशु - पक्षी नर - नारी हरसे।
सावन में घन झर - झर बरसे।।
भरते ताल - तलैया सारे।
खेत लबालब लगते प्यारे।।
वीरबहूटी को हम तरसे।
सावन में घन झर- झर बरसे।।
'शुभम्' करें टर -टर नर मेढक।
लगा नयन पर अपने ऐनक।।
नहीं निकल पाते हम घर से।
सावन में घन झर -झर बरसे।।
शुभमस्तु !
15.09.2024◆3.00प०मा०
★★★
मेहो -मेहो करते मोर [ बालगीत ]
407/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
मेहो - मेहो करते मोर।
गाँव गली में होता भोर।।
छिपे ओट में करते नाच।
छत पर जब तब भरे कुलाँच।।
अमराई में करते शोर।
मेहो - मेहो करते मोर।।
नीले हरे बैंजनी पंख।
चमकीले भी बड़े असंख।।
कम्पन करती सुंदर कोर।
मेहो - मेहो करते मोर।।
'शुभम्' शारदा माँ का वाहन।
उधर सर्प का जानी दुश्मन।।
नाचे तो मत जा उस ओर।
मेहो - मेहो करते मोर।।
शुभमस्तु !
15. 09.2024◆1.15प०मा०
वीणापाणि भारती माता [बालगीत]
406/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
वीणापाणि भारती माता।
ज्ञानदायिनी सब सुख दाता।।
मम रसना में बोल सिखाती।
नव शब्दों का ज्ञान कराती।।
शीश झुकाकर तुमको ध्याता।
वीणापाणि भारती माता।।
श्वेत वसन तुम करतीं धारण।
उर का तम नित करो निवारण।।
वेला के सित सुमन चढ़ाता।
वीणापाणि भारती माता।।
'शुभम्' कमल दल माते साजें।
हंसासन पर सदा विराजें।।
मैं गुणगान तुम्हारा गाता।
वीणापाणि भारती माता।।
शुभमस्तु !
15.09.2024◆12.30प०मा०
★★★
[
किनारे पर खड़ा दरख़्त
मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...