398/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
कवि नहीं
हम हैं रसोईया
जानते क्या परोसें।
चुन रहे हम
बीज शब्दों के
सुघर साबुत सुनहरे।
व्यंजन पकें
सुस्वादु मधुरिम
दृश्यता में सुष्ठु निखरे।।
जो लगाते
भोग ले चाव
हमको यों न कोसें।
छाँटना पड़ता
लगी हैं ढेरियाँ
क्या कुछ उचित होगा!
गलित रूखे
भी न हों वे
पहनवाएँ सुघर चोगा।।
समझनी हैं
चाहतें सबकी
हमें कण भर न रोसें।
कविता कहें
या थाल व्यंजन
जो परोसा आपको।
कठिन कोमल
तुहिनवत या
सह सकें इस ताप को।।
है 'शुभम्'
चातुर्य कौशल शब्द
नहीं आलू समोसे।
शुभमस्तु !
13.09.2024●11.45आ०मा०
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