बुधवार, 18 सितंबर 2024

थिगलियों की रीति! [ अतुकांतिका ]

 397/2024

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रीति है 

अब थिगलियों की

वस्त्र हों

या भाषा!

विश्वास न हो

तो निकल जाओ

शहर में 

सड़क या बाजार में।


थिगलियाँ ही नहीं

फटे हुए जींस

घुटनों  जाँघ पर

बड़े -बड़े छिद्र

वातायन दिखेंगे,

हिंदी के रेशम में

बट नो - नो

हाउ ह्वाट में

नंगे 'शुभेंगे'।


'अति सभ्य' ?

होता जा रहा है

आदमी,

भाषा वसन

पहनता उतरन,

हाय ! ये

कैसी फिसलन!


जैसे गा रहा हो

शोक गीत हिंदी का,

चिपका रहा हो

मुख पर 

आंग्लता की अम्लता

क्षुद्र चिंदी- सा।


गिटपिटियाने का

रुतबा ही अलग है,

थेगली लगी जींस की

हवा ही विलग है,

आओ 'शुभम्'

किसी और की

माँ को

माँ कहकर 

हर्षित हो लें,

हिंदी के संस्कार में

कुछ बीज

उधार के बो लें!


शुभमस्तु !


12.09.2024●12.30प०मा०

                 ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...