447/2024
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
वाह रे! तेरी कारीगरी रे करतार!तेरी महिमा अपरंपार !! मैं सारी दुनिया की सारी सृष्टि की बात नहीं करता। मैं तो केवल और केवल इस मानुस जातक,इस आदमी (औरत भी) की बात करना चाहता हूँ।हे करतार ये मानुस जाति भी क्या खूब बनाई! कहाँ -कहाँ की मिट्टी से इसकी मूर्तियाँ सजाईं ! मेरी तो समझ में आज तक नहीं आई। जितने आदमी औरत उतने तेरे साँचे !सारे/सारी भर रहे/रही नए -नए कुलाँचें ! इसकी बंद किताब को कोई जितना भी बाँचें ;उतना ही करता है ये तीन -पाँचें।सोचते -विचारते पड़ गए दिमाग में खाँचे।
उस पर भी तुर्रा यह कि पूरब और पच्छिम को ,उत्तर या दक्खिन को धरती और आकाश को मिला दिया।यह बस तू ही कर सकता था।हाथी, घोड़ा,कुत्ता ,बिल्ली,बंदर,शेर ,शेर,चीता में तो कर नहीं पाया। आदमी औरत के लिए विवाह शादी जैसा अद्भुत संविधान बनाया।यदि इनमें से किसी ने भी किंचित पगहा तुड़ाया तो मानुस समाज ने ही उसे कितना चिढ़ाया।उसे संविधान के विरुद्ध बतलाया।
विवाह के बंधन में बंधने के बाद ये दोनों आजीवन एक दूसरे को समझने में ही लगे रहते हैं ;किन्तु आज तक कोई किसी को समझ नहीं पाया। एक ही छत के नीचे और एक ही सेज के ऊपर एक साथ रहते हुए भी एक दूसरे के लिए पहेली बने रहे।आज भी पहेली हैं।परस्पर समझने की कोशिश निरन्तर जारी है ;किन्तु कोई लाभ नहीं। आदमी और औरत की विरोधाभासी जोड़ी सुलझने के बजाय और भी उलझ गई है।वे उषा और सूरज की तरह दिन में अलग -अलग हो जाते हैं और लड़ते -झगड़ते रहते हैं और सूर्यास्त होते ही सूरज और संध्या की तरह एक हो जाते हैं। समझौता कर लेते हैं।ये विच्छेद और संधि का का नैत्यिक कार्यक्रम आजीवन चलता रहता है। किंतु अंत वहीं ढाक के तीन पात में सिमट जाता है। बिगड़ते -सिमटते जीते हैं,मरते हैं ,पुनः जन्म लेते हैं और पुनः वही सत्तर -सत्तर जन्म का चक्र चलने लगता है।
हमारे विद्वान वैज्ञानिकों ने तो अणु और परमाणु का झगड़ा बताकर पल्ला झाड़ लिया कि सारी सृष्टि की रचना ही अणु और परमाणु के झगड़े से हुई है ।आदमी औरत भी वैसे ही बनते हैं।जब अणु और परमाणु विरोधी हैं तो दो ही बातें हो सकती हैं :आकर्षण या विकर्षण।यह आकर्षण और विकर्षण ही मानव जीवन है। अब वह शादीशुदा हो तो क्या और न हो तो भी क्या!जो होना है ,वह तो होगा ही।और बस उन्होंने अपना पिंड ही छुड़ा लिया।
अब हमारे विद्वान कवि ,लेखक, कहानीकार, व्यंग्यकार,नाटककार कब हार मानने वाले थे ,उन्होंने भी महाकाव्य,खण्डकाव्य, निबंध,कहानियाँ, लघुकथाएँ,व्यंग्य,नाटक,एकांकी आदि लिखकर आदमी और औरत की थाह लेने की कोशिश की। आज तक कर रहे हैं।नए-नए चरित्र,व्यक्तित्व,आदर्श,अनादर्श, परखे ,निरखे ;किन्तु क्या वे भी संतुष्ट होकर कह सके कि हमने आदमी और औरत को पूरी तरह समझ लिया है ! बस गले में पड़ा हुआ ढोल है ,जिसे बजाए जा रहे हैं। बजाए जा रहे हैं। पर निष्कर्ष वही :ढाक के तीन पात।
विचार किया जाए तो बात यही निकल कर आती है कि आदमी और औरत अलग -अलग मिट्टी की बनी हुई प्रतिमाएँ हैं,जो अपने में एक भी सम्पूर्ण नहीं हैं।परस्पर पूरक हैं। जो इधर नहीं ,वह उधर ढूँढे और जो उधर नहीं है वह इधर ढूंढ़े।इस ढूंढ़ - ढकोर में ही पूरी तरह चुक जाते हैं, किन्तु परस्पर पहचानने में तो चूके ही रहते हैं।दुनिया के करोड़ों जोड़ों में यदि कोई ऐसा जोड़ा भी है ,जिनमें कभी विवाद या झगड़ा न हुआ हो तो यह अपवाद ही कहा जायेगा।समरसता जीवन नहीं है।यदि स्त्री पुरुष में उतार -चढ़ाव न हो ;तो ऐसा जीवन भी कोई जीवन है ? लगता है दोनों का निर्माण एक ही तालाब की मिट्टी से कर दिया गया हो।जैसे वे पति - पत्नी नहीं ;कोई भाई -बहन ही हों। झगड़े और विवाद तो भाई बहनों में होते हैं, होते रहे हैं और होते भी रहेंगे। वे भी तो आदमी और औरत ही हैं न ! पति -पत्नी नहीं हैं तो क्या ! उनके निर्माणक तत्त्व तो भिन्न -भिन्न ही हैं।चमत्कार तो उस कारीगर परमात्मा का है ,जो कहाँ कहाँ की मिट्टी जोड़कर एक छत के नीचे ला बिठाता है।
वे आजीवन एक दूसरे को नहीं जान समझ पाते। ये कवि लेखक और वैज्ञानिक भला कैसे समझ पाएंगे? मानव का समग्र साहित्य उसकी चरित्रशाला है।मिट्टियों के ऊपर तरह- तरह का मिट्टी का ही दुशाला है।रंग में कोई गोरा है तो कोई काला है।पर ये रंग नहीं किसी की पहचान का खुला हुआ ताला है।काले खोल में भी गोरी ,गोरी है। और कोई - कोई तो गोरे में नहीं गोरी है। संक्षेप में कहें तो अंड में ब्रह्मांड समाया है।ये आदमी -औरत तो मात्र करतार की छाया है।इन्हें आज तक नहीं कोई समझ पाया है।ये कविताएँ,कहानियाँ, महाकाव्य,खण्डकाव्य सब उसके मनोरंजन के प्रकार हैं।जिनमें आदमी औरत के विभिन्न आकार साकार हैं।इनका बनाने वाला दृष्टा है ,निराकार है।वही आकाश है वही धरणी का आधार है। बस इतना ही मान ले तू बंदर, गधा, घोड़ा,बिल्ली, श्वान,गौमाता, भैंसमाता,बकरीमाता, भेड़माता नहीं; आदमी - औरत साभार है।
शुभमस्तु !
28.09.2024●2.45प०मा०
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