395/2024
[स्वाद,विषाद,महिमा,विमल,चरित्र]
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सब में एक
स्वाद मिला जिस जीव को,पावन ब्रह्म स्वरूप।
जग-क्रीड़ा भाए नहीं, गिरे नहीं भव कूप।।
क्षणिक स्वाद रसना करे,फँसे जीव रस-जाल।
हो जाए उदरस्थ जब, समरस हो सब हाल।।
योगी जन समरस रहें, हों आनंद विषाद।
सुखी - दुखी होना नहीं, तजें नहीं मर्याद।।
सुख में सब नर-नारियाँ,खिलते जैसे फूल।
हो विषाद अति दुःख में,ज्यों आनन पर धूल।।
महिमा यश की फैलती, ज्यों दिनकर का तेज।
करता नहीं प्रचार रवि,ध्वनिविस्तारक भेज।।
अष्ट सिद्धि में एक है, महिमा तेज महान।
अणिमा गरिमा आदि का, करते वेद बखान।।
होता विमल चरित्र जो, कहने की क्या बात!
दूषित है यदि भावना, करते ही वे घात।।
विमल भाव मिलता नहीं, नेताओं में मित्र।
सौ अवगुण की खान हैं, चारु न चित्र चरित्र।।
हो चरित्र यदि दूध-सा,जतलाने की क्या बात!
मन में जिनके मैल है, करते ही वे घात।।
गिरता व्यक्ति चरित्र से,सब कुछ ही हो नष्ट।
सौ में से दस ही मिलें,भाव न जिनके भ्रष्ट।।
एक में सब
महिमा विमल चरित्र की,प्रसरित करती नाद।
रहता रहित विषाद से, पाए षटरस स्वाद।।
शुभमस्तु!
11.09.2024●4.30आ०मा०
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