425/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
शीत बढ़ी भा रही रजाई।
मौसम ने अब ली अँगड़ाई।।
शी - शी करतीं दादी नानी।
नहीं सुहाता शीतल पानी।।
दिन में धूप भरे गरमाई।
शीत बढ़ी भा रही रजाई।।
लेकर स्वाद गज़क हम खाते।
शकरकंद भी हैं मनभाते।।
मूँगफली नित सुरुचि चबाई।
शीत बढ़ी भा रही रजाई।।
सौंधी है सरसों की भुजिया।
धूप सुहाती अपनी बगिया।।
स्वेटर की चल रही बुनाई।
शीत बढ़ी भा रही रजाई।।
शुभमस्तु !
16.09.2024◆9.30 आ०मा०
★★★
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