सोमवार, 23 सितंबर 2024

कुँए में भाँग! या .... [ व्यंग्य ]

 436/2024 


 

 © व्यंग्यकार

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 कौन कहता है कि इस देश के नेता भ्रष्ट हैं,असत्यनिष्ठ हैं,अनिष्ठ हैं और न जाने क्या -क्या हैं ! इसी प्रकार के दोषारोपण यहाँ के अधिकारियों पर भी जी भर -भर कर लगाए जाते हैं कि वे अपनी तिजोरियाँ भर रहे हैं।कार्यों को लम्बित करने के विशेषज्ञ हैं।केवल अपनी कोरी शान के अहंकार में जनता जनार्दन को घास नहीं डालते।सारे देश का भार इन्हीं नेताओं और अधिकारियों के कंधों पर ही तो रखा हुआ है,इसके बावजूद आप इन्हें पानी पी पीकर कोसते हैं। प्रश्न यह है कि फिर यह देश चल कैसे रहा है। अंततः सब कुछ दारोमदार इन्हीं के ऊपर तो निर्भर है,फिर भी आप उन पर आरोप लगाने से बाज नहीं आते।ऐसा क्यों ? 

 आप यह अच्छी तरह से जानते और समझते हैं कि ये नेता, मंत्री, विधायक,सांसद,बड़े-बड़े प्रशासक ,पुलिस आदि आते कहाँ से हैं! जिस समाज में हम आप और अन्य सभी तथा ये अधिकारी और नेता जन्म लेते,पलते,बढ़ते,चढ़ते,देश और समाज के नाम मढ़े और गढ़े जाते हैं,वह कोई आसमान से तो नहीं गिरा। सब इसी खेत की फसल हैं। जैसा पेड़ होगा, वैसा ही उसका उत्पादन भी होगा। उसके गुणसूत्र,आर एन ए,डी एन ए आएँगे कहाँ से? जब धरती के सारे कुओं में भाँग घोली गई थी,तो कोई प्रदेश, शहर,गाँव,घर,झोंपड़ी छोड़ा नहीं गया था।सब में भाँग का बीज -वपन समान रूप से किया गया था।भाँग के बीज ने इतनी अधिक लोकप्रियता प्राप्त कर ली कि यह जानना समझना ही मुश्किल हो गया कि भाँग में कुँआ है या कुएँ में भाँग है! परिणाम सामने है कि देश में यहाँ - वहाँ, जहाँ -तहाँ भाँग की बाड़ ही लग गई और सारा देश और समाज, नगर ,गाँव,भवन,महल, अट्टालिकाएँ,सरकारी ,गैर सरकारी, संस्थान भंग -बाड़ की बाढ़ में बह गया।

 जब हर नर -नारी के खून में भ्रष्टता बहरा रही है,प्रदूषण गहरा रहा है ,तो दूध के धुले हुए नेता और अधिकारी आएँगे कहाँ से? कहाँ तो चाय भर के लिए तो शुद्ध दूध मिलना संभव नहीं है और आपको दूध - स्नात नेता और अधिकारी चाहिए ?जिस देश का भैंस वाला/वाली पानी में दूध दुहता हो,उस देश के भैंस मालिकों से आशा भी क्या की जा सकती है !लड्डुओं में चर्बी, धनिया चूर्ण में गधे की लीद, हल्दी में रंग, सरसों के तेल में पाम ऑइल,सोने में पीतल आदि, मिलाए जाने का संस्कार जन्मजात और आम हो,उस देश की जनता और उससे ही जन्मे नेताओं और अधिकारियों से शुद्धता और निष्ठता की आशा करना नाइंसाफी होगी।जब यहाँ का आदमी और औरत ही शुद्ध नहीं ,तो नेता और अधिकारी में शुद्धता खोजना चील का मूत लाने की तरह असम्भव कार्य है।अब कहीं भी शुद्धता मिलना एक भंग स्वप्न ही है।बेचारा सबका अन्नदाता किसान भी अब काजर की कोठरी में काला हो गया।उसे भी जहर मिलाकर सब्जियाँ और फल बेचने पड़ते हैं।किसान भी तो वही भाँग जन्य संतान है।वह उसके नशे से कैसे बच सकता है !

 ईमान ,निष्ठता,पवित्रता,शुद्धता आदि कुछ ऐसे शब्द हैं,जिन्हें हिंदी शब्दकोष से ससम्मान विदा कर देना ही चाहिए। अब ये और ऐसे ही बहुत सारे शब्द इतिहास बन चुके हैं,'आउटडेटेड' हो चुके हैं।इतिहास में लिखा जाएगा कि इन शब्दों का भी कभी अस्तित्व था।ये है उनकी 'ममी ' जो शब्दकोष रूपी अजायबघर में सुशोभित हो रही है।

 भारत की भूमि संस्कारों की भूमि है।यही कारण है कि हम इनका विशेष सम्मान करते हैं और उनके पद और नामों से पूर्व 'माननीय' विशेषण के बिना एक वाक्य भी उच्चरित नहीं करते हैं।अधिकारी यदि मान्यवर हैं तो ये माननीय।किन्तु जन्मजात संस्कार से पीछा कैसे छुड़ाएं।इस देश में बस एक ही आदमी ऐसा है जो तथाकथित 'प्रदूषण' से मुक्त है। वह व्यक्ति वही हो सकता है,जिसे प्रदूषण और भ्रष्टता का सुअवसर न मिला हो। वही बेचारा दावे के साथ हुंकार भर सकता है कि वह दूध का धुला और बेदाग है। निरमा पाउडर की तरह उसका कुर्ता सफेद झाग है।इसीलिए तो वह रहता बाग-बाग है। भ्रष्टता में निम्मजित नहीं वह कोई काला नाग है। वह भले ही बे-चारा है तो क्या ! जो बा-चारा हैं; उनसे भी अधिक उसकी तेज आग है।बस वही एक आदमी है। उसी एक आदमी को पहचान लिया गया है। उसके तो कदम कदम में 'प्रयागराज' और 'गया' हैं। 

  भाँग का नशा भी अपने में विचित्र है। शेष नहीं बचता वहाँ नर-नारी का चरित्र है।ये भाँग नहीं है,अजब गजब- सा इत्र है।जहाँ न कोई अपना सगा है ;न इष्ट - मित्र है। बस नशा ! नशा !! और नशा!!! इस नशा से भला कौन है बचा ? नहीं करता चिंता नेता या अधिकारी कि इसकी भी है कोई सजा ! बस उठाए रखता है भाँग की झंडी की ध्वजा ! स्वयं के संग -संग परिवार और उनकी सात -सात पीढ़ियाँ मारती हैं मज़ा।भाँग तो भाँग है,इसके मजे में कोई फ़िक्र नहीं कि सिर मुड़ जाय या टूट जाए टाँग है! इस नशे में सब कुछ सही ही सही है ,न कुछ रोंग है।कुँआ ही भाँग में पड़ा हुआ है, इसलिए गा रहे नेता अधिकारी मिलजुलकर समवेत सॉन्ग हैं।

 शुभमस्तु ! 

 23.09.2024● 7.30 प०मा० 

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