गुरुवार, 5 सितंबर 2024

प्रभुता की शुभ सृष्टि [ दोहा ]

 382/2024

            

[दृष्टि,अस्मिता,शिष्टाचार,तिलक,अंतरिक्ष]

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

                सब में एक

सृष्टा की शुभ दृष्टि से, सृजित सकल  संसार।

तीन लोक  ब्रह्मांड  में, मानव  अतुल   अपार।।

मिली  दृष्टि  से  दृष्टि  दो,हुआ परस्पर    प्रेम।

हे    मृगनयनी  कामिनी, तू  पारस  मैं    हेम।।


मिटे न अपनी  अस्मिता,करे मनुज वह कर्म।

पतित  न  हो  आचार  से,तजे न मानव  धर्म।।

पुरुष  वही  पुरुषार्थ से,बचा अस्मिता सत्त्व।

रहे   नागरिक  राष्ट्र  का,मिटे न जीवन  तत्त्व।।


सभ्य  सुजन  से  चाहता, मानव शिष्टाचार।

स्वतः  सुलभ  सम्मान  हो,कर्मों के अनुसार।।

विद्या    विनय   प्रदायिनी,  देती शिष्टाचार।

कीर्ति  बढ़े  संसार  में,  हो   जीवन - उद्धार।।


तिलक नहीं माला  भली,यदि हों खोटे  कर्म।

सदा  श्रेष्ठ  वरणीय  है,अपना  मानव   धर्म।।

तिलक लगा  हो भाल पर,छिपें नहीं  आचार।

कौन मनुज  सत  श्रेष्ठ  है, कर्म  बनें आधार।।


अंतरिक्ष  से   देखिए, मानव   का  अस्तित्व।

सूक्ष्म एक कण सृष्टि का,सृष्टा अमर वशित्व।।

अंतरिक्ष में  व्याप्त  हैं, अतुलनीय  त्रय  लोक।

अगणित तारे भानु शशि,सागर धरा विशोक।।

               एक में सब

अंतरिक्ष में अस्मिता,नहीं पहुँच   जन- दृष्टि।

तिलक न शिष्टाचार ही,प्रभुता की शुभ  सृष्टि।।


शुभमस्तु !

04.09.2024●4.00आ०मा०

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