शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

पल -पल रंग बदलती दुनिया [नवगीत]

 129/2025


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


होली कब क्यों 

पूँछ रहे हो

पल -पल रंग बदलती दुनिया।


अपने रँग में सभी रँगे हैं

गिरगिट से भी आगे सारे

होली सदा यहाँ मनती है

पीत   हरे  नीले  रतनारे

बारह मास यहाँ है फागुन

पल -पल रंग बदलती दुनिया।


एक श्वेत को काला करता

कोई  रँगता  हाथ  लहू  से

कामचोर  चोरी   में  रत है

कोई  माँगे  काम   बहू  से

नेताओं का हर दिन सावन

पल-पल रंग बदलती दुनिया।


मंदिर  में जा घण्ट बजाए

कुंभ नहाए   ले- ले  गोता

लीद मिलाता धनिए में जो

नहीं कभी पछताता  रोता

देश  लूटता है समझावन

पल-पल रंग बदलती दुनिया।


करता है जो काम नित्य ही

संगम में भी वही करेगा

जेब कतरना जिसका उद्यम

क्यों न भला वह कुंभ तरेगा

राम संग आए बहु रावण

पल-पल रंग बदलती दुनिया।


शुभमस्तु !


28.02.2025●10.45आ०मा०

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भीड़ से भी नाम चमके [ नवगीत ]

 128/2025

    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भीड़  से भी नाम चमके

समझ में अब आ गया है।


भीड़ से  ही  वोट मिलते 

भीड़ से जनतंत्र चलता

भीड़ का ही लाभ लेकर

हर उचक्का देश छलता

फॉर्मूला भीड़ का ये

देश को भी भा गया है।


कब  अकेला  एक  कोई

भाड़ को  ही  फोड़  पाता

थोथा चना बजता घना यों

पर नहीं छवि छोड़ जाता

मुफ़्त का राशन मिला तो

हर निकम्मा छा  गया है।


हो   बहुल    संतान   वाला

यदि पिता  तो नाम उसका

वक्त आए लट्ठ   का   यदि

ढेर   कर दें  मार  भुस  का

नर  उछलता  है  वही अब

टैक्स का धन खा गया है।


कुंभ का  अच्छा   निदर्शन

देश को अब मिल चुका है

भीड़  से ही  आय   बढ़ती

आ विपक्षी  भी  झुका  है

एक का सौ - सौ   वसूला

मजबूरियां बरसा गया है।


भीड़  हो जितनी भयंकर

आस्था    सैलाब    लाए

काम जिसका लूट चोरी

क्यों उसे कुछ और भाए

भीड़ का  शुभ  मंत्र  प्यारा

गज़ब  अपना ढा  गया है।


शुभमस्तु !


28.02.2024●9.00आ०मा०

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भोले शंकर भाव के [कुंडलिया]

 127/2025

            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

भोले    शंकर   भाव   के, भूखे  भुव  भगवान।

लिंग  रूप  में  पूज्य हैं,जग  के कृपा  निधान।।

जग  के  कृपा  निधान,भस्म निज देह  लगाते।

मृगछाला    के   वस्त्र,  पहनते   वही  बिछाते।।

'शुभम्'  जपें  शिव   नाम, ध्यान से हौले-हौले।

सेवा  करें  अकाम,  भले   अति शंकर  भोले।।


                          -2-

रहते  हैं  कैलाश  पर,  शिव  शंकर निज  धाम।

संग उमा  सहधर्मिणी, सुत  गणेश शुभ   नाम।।

सुत  गणेश  शुभ  नाम,  षडानन अग्रज  भ्राता।

नंदी  संग   अकाम,  गीत   जग जिनके   गाता।।

'शुभम्'  हिमाचल अंक, कष्ट हिम के सब सहते।

अवढरदानी  शंभु,  शैल    पर निशिदिन   रहते।।


                         -3-

रखते   हाथ  त्रिशूल  जो, शिव शंकर  भगवान।

नीलकंठ  हर   शंभु   हैं,   हर  नटराज   महान।।

हर   नटराज    महान,  भक्ष्य  है आक   धतूरा।

बेल   फलों   का    भोग,  लपेटे   गात   समूरा।।

'शुभम्'   कंठ   है   नील,  भस्म  से  पूरे   सजते।।

हर- हर   जपते   भक्त, कमंडल कर   में   रखते।।


                         -4-

अपने     भारत  देश   में,  आदि  देव  भगवान।

ईश्वर   शंभु   गिरीश  हैं, शंकर  कृपा  निधान।।

शंकर   कृपा  निधान,  त्र्यम्बक  जपता    कोई।

कहें    पिनाकी   रुद्र,  नयन  की कोर   भिगोई।।

'शुभम्'    शुभंकर   ईश, बनाया शंकर  तप  ने।

आक   भाँग  से  तुष्ट, त्रिलोचन शंकर   अपने।।


                         -5-

आई  है  तिथि फाल्गुनी, शिव तेरस  यह  जान।

सभी   शिवालय  में  बजें, घण्टे घन- घन   मान।।

घंटे    घन-घन     मान,   त्र्यम्बक की हो   पूजा।

शिव  शंकर-सा   कौन,   जगत में कोई    दूजा।।

'शुभम्'   करें   जल  दान,और  पूजा  मनभाई।

शिवजी   रहें   प्रसन्न,  पावनी  तिथि   है   आई।।

शुभमस्तु !


27.02.2025●10.00प०मा०

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रँग रोली पिचकारी [अतुकांतिका]

 126/2025

      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रँग   रोली   पिचकारी

चंदन गुलाल की बारी

चुप-चुप ऋतुराज पधारे

खिल उठे फूल कचनार।


सरसों गेंदा पाटल झूमे

भ्रमरावलि शाखा पर झूले

तितली मचली हर फूल- फूल

कोयलिया करे पुकार।


मन मचल रहा

तन उछल रहा

मन्मथ की सेना मौन

है नेह जीव का सार।


बदला-बदला परिदृश्य

हम जानें सभी अवश्य

लिपटी आमों से बेल

प्रियल प्यार  साकार।


बूढ़ा पीपल मुस्काया

बरगद की मोहक छाया

पतझड़  भी करे धमाल

बालक भरते किलकार।


शुभमस्तु !


27.02.2025● 8.45प०मा०

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गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

एक रंग यह भी जीवन का [नवगीत]

 125/2025

    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


एक  रंग यह भी जीवन का

बड़े भाग्य से हमको मिलता।


झूल पालना घुटनों रेंगा

सरपट दो पैरों पर दौड़ा

लल्ला मुन्ना भी कहलाया

अम्मा और पिता का मौड़ा

अधनंगा नंगा भी रहकर

फूल सुहाना ऐसा खिलता।


बालापन से जब किशोरता

आई तो कुछ और बात थी

यौवन का कब बना बुढापा

क्या यह कोई सघन रात थी

किंतु नहीं अफ़सोस आज भी

सबको नहीं  बुढापा मिलता।


चतुर्युगी सबको कब मिलती

सतयुग द्वापर कलयुग त्रेता

किसने कहा बुढापा बेढब

यही समय तो सबका जेता

यौवन के सब फूल झरे हैं

फटे हुए को ही नर सिलता।


शुभमस्तु!


27.02.2025●1.45प०मा०

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मैं रिटायर भले हो गया हूँ! [ नवगीत ]

 124/2025

    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मैं रिटायर भले हो गया हूँ

कोई शिकवा गिला नहीं ।


न कोई बंधन है 

न कोई नियमों की पाबंदी

न कोई ठनगन है

न कोई  सरकारी चौहद्दी

अबोध से सुबोध हो गया हूँ

 गड़ी  हुई  शिला नहीं ।


जब चाहता हूँ

जो चाहता हूँ खाता हूँ

करता हूँ साहित्य सेवा

भरपूर निभाता  हूँ

लक्ष्य दिखलाई दे रहा है

स्व स्थान से हिला नहीं।


वक्त को देखा है

वक्त ने जो दिखाया है

खोया भी बहुत कुछ

बहुत कुछ मैंने पाया है

पैसे की लालची दुनिया

फिर भी  किसी से सिला नहीं।


अपनों में  परायापन

परायों में खुद को पाया

खुदगर्जी से भरी दुनिया

फिर भी किरदार निभाया

मुझे मेरी झोपड़ी ही भली

चाहिए कोई किला नहीं।


जब तलक देह गति में है

पहचान भी एक बनी

उड़ते  ही हंस पिंजड़े से

बढ़ती है नित अनमनी

हमेशा हमेशा चलने का

यहाँ सिलसिला नहीं।


शुभमस्तु !


27.02.2025● 1.30प०मा०

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पिचकारी की धार [नवगीत]

 123/2025

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


फागुन करे धमाल

पिचकारी की धार।


गली-गली सब गाँव

फागुन में फगुआ रहे

अमराई की छाँव

आमंत्रण अपना कहे

नर -नारी आल्हाद 

पड़ी काम की मार।


डफ ढोलक रस घोल

करें हुरंगा  गान

देते कपड़े फाड़

मदपाई कर पान

साली की किलकार

टपकाए नर लार।


मादक मदिर तरंग

रही न बाकी लाज

प्रसरित हैं नव रंग

बदल गया हर साज

प्रेम न मिले उधार

एक नहीं तैयार।


कोकिल करे पुकार

कुहू-कुहू की बोलियाँ

महक रहे मृदु फूल

कसक रही हैं चोलियाँ

फागुन के दिन चार

करते भ्रमर दुलार।


सरसों फूली खेत

तितली करती  खेल

अलसी कलसी शीश

भार रही  है   झेल 

होली का मधुमास

बाँट रहा है प्यार।


शुभमस्तु !


27.02.2025●11.30आ०मा०

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बजी श्याम की बाँसुरी [सोरठा]

 122/2025

      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आए  गोपी-ग्वाल, बजी  श्याम  की बाँसुरी।

करती  हुई  धमाल,  गाय रँभाने लग   गईं।।

नाचें  गोपी  ग्वाल, जीव-जंतु  सब मुग्ध हैं।

देते   तरुवर    ताल, हरे  बाँस  की बाँसुरी।।


हरी बाँसुरी नित्य,बजती जब घनश्याम की।

रुक   जाते   आदित्य,  गौ  माताएँ नाचतीं।।

जग  जाते  मम  भाग,  जो  होती मैं बाँसुरी।

सोया   सुघर    सुहाग , सौतन  मेरी बन गई।।


हे  कान्हा  बरजोर,  पहले  मेरी  बात  सुन।

करे   कान  में  शोर,  दूँगी  तुझको बाँसुरी।।

चले  आ रहे  श्याम, कटि में खोंसी बाँसुरी।

जपते  राधा  नाम, आज  अनमने-से  लगे।।


राधा  ने जब आज,छिपा  चुनरिया में    रखी।

बिगड़ा  है  सुर-साज, हरी  बाँसुरी श्याम की।।

सुनी  बाँसुरी  टेर,छोड़ दिए गृह-काज    सब।

करें न  किंचित  देर,विह्वल हैं अति गोपियाँ।।


मधुर    बाँसुरी   टेर,   मंत्रमुग्ध  हो  सुन   रहे।

तनिक न करें अबेर,जीव जंतु मृग तरु सभी।।

सुनें     बाँसुरी  नाद,  नारद  वीणा रोक  कर।

दूर   करे   अवसाद,  तन्मय   हो तल्लीन   हैं।।


जहाँ   बाँसुरी  नाद, धन्य -धन्य ब्रजधाम है।

शेष  न  रहे   प्रमाद,   बाँधे  अपने मंत्र    में।।


शुभमस्तु!


27.02.2025●5.30आ०मा०

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पर नेता मत बनना तुम [ नवगीत ]

 121/2025

   ©शब्दकार  

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बेटा जो चाहे बन जाना

पर नेता मत बनना तुम।


पढ़ा-लिखा है डिग्रीधारी

इतने तो गुण हैं तुझमें

करे नौकरी या कुछ धंधा

भूखा नहीं मरे जग में

जनता को बातों से ठगकर

नहीं दबाना अपनी दुम।


मुफ्तखोर शातिर दिमाग ही

बदल-बदल कर अपने वेश

बन जाते ठग या नेताजी

लूट रहे जो अपना  देश

नेता बनने से बेहतर है

पहने घुँघरू नच छुम-छुम ।


कर्णधार वे नहीं देश के

शिक्षित ही करते शासन

वोट खरीदें नोट बाँटकर

कभी तेल बाँटें राशन

बनकर खास आम रस चूसें

कनक कामिनी या कि हरम।


शुभमस्तु !


26.02.2025●7.30प०मा०

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आम जनों की बात नहीं [ नवगीत ]

 120/2025

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कवियों में भी क्षेत्रवाद है

आम जनों की बात नहीं।


मिले जातिवाला जो कोई

उसका गाढ़ालिंगन हो

रिश्तों की आरंभ खोज हो

रक़्तों का प्रतिबिंबन हो

सोच समझ कर करे समीक्षा

शेष  न  कोई घात नहीं।


एक-एक मिल ग्यारह होते

गिद्धों से गिद्धों का मेल

गौरैया से गिद्ध न मिलता

करता है अस्मत से खेल

बिल्ली झपट मारती चूहा

मिलती उसकी जात नहीं।


कहने को वे सर्व हितैषी

जात - पांत का गंदा खेल

नहीं खेलने से  वे चूकें

वाणी में मिथ्या का मेल

राजनीति इनमें नेता की

घुसी हुई सौगात नहीं।


शुभमस्तु !


26.02.2025●7.15 प०मा०

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बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

शिवाराधना [ दोहा ]

 119/2025

                 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नमन करूँ  शिव  शंभु को,जय जय गौरी नाथ।

कृपा   सदा  बरसाइए,  उठा  वरद निज हाथ।।

गिरिजापति  शंकर सभी,हर हर शिव के नाम।

रहते   प्रभु   कैलाश  में,उच्च  शृंग पर   धाम।।


अवढर  दानी  शंभु  हैं,जग हितकारी   नित्य।

नीलकंठ  की  भक्ति का,सरल शुभद औचित्य।।

भाँग   धतूरा   बेल  दल, फल  का करते  भोग।

गौरीपति  शिव शंभु को,करूँ नमन सह योग।।


शिव  तेरस  शिवरात्रि  को, शंकर उमा विवाह।

भाँग    धतूरा    भोग  से ,करें भजन अवगाह।।

गंगा     सोहें  शीश  पर,  ग्रीवा  बीच   भुजंग।

वाम    अंग   में    हैं  उमा,सदा नादिया   संग।।


भस्म    रमाए   देह   पर,  वर्ण  कपूरी    गौर।

मृगछाला  आसन सदा, शिव-सा है क्या और??

एकमात्र    शिवलिंग   पर, चढ़े गंग की   धार।

करते  हैं  कल्याण   शिव, कितने  महा  उदार।।


कार्तिकेय    सम  पुत्र    हैं,  छोटे  पुत्र   गणेश।

गौरीपति शिव  शंभु  को,कहता जगत   महेश।।

आक    धतूरा    भाँग    से,  होते  जो   संतुष्ट।

वही    रुद्र   के  रूप हैं,  हो  जाते जब   रुष्ट।।


कृपा   करें  इस  भक्त पर,शिव भोले  भगवान।

हरि हर विधि की अर्चना, करूँ नित्य गुणगान।।


शुभमस्तु !


26.02.2025●6.00आरोहणम मार्तण्डस्य। (महाशिवरात्रि)

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आक धतूरा भाँग [ दोहा ]

 118/2025

             


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भाँग   धतूरा   बेल  दल, फल का करते   भोग।

गौरीपति शिव  शंभु को, करूँ नमन सह   योग।।

शिव   तेरस   शिवरात्रि   है,शंकर उमा  विवाह।

भाँग  धतूरा   दान  कर, करें   भजन  अवगाह।।


ऊर्जा      सदा   नकार    की ,  करे  धतूरा    दूर।

पौधा     एक    लगाइए,  करे  क्लेश  गृह   चूर।।

श्वास   रोग या  अस्थमा, खुजली  भी  कर  दूर।

इम्युनिटी    की   वृद्धि   हो, कहते जिसे    धतूर।।


बहुत   विषैला  जानिए,भखें न दल फल   भूल।

घोंट     धतूरा   शंभु    को ,देतीं  उमा   समूल।।

पीड़ाहारी    शोथहर,   कृमिनाशक   हैं   बीज।

कहें   धतूरा    लोग  सब, एक अमोलक चीज।।


आक    धतूरा  भाँग  के ,  बहुत  बड़े  उपयोग।

औषधि    आयुर्वेद    की,  मिटा  रही  हैं   रोग।।

गौरा     बोलीं    शंभु   से,  नहीं  धतूरा   आज।

भाँग    घुटे    कैसे   प्रभो, मत  होना  नाराज।।


ले     सरसों    के   तेल  में, पका धतूरा   आप।

दर्द निवारक  पृष्ठ  कटि,  श्रवण वेदना   ताप।।

त्वचा    रोग     सूजन   सभी,  करे धतूरा   दूर।

मिले     गात  नीरोगता,   देता   नशा   सुरूर।।


पित्त    प्रदर   में  पत्र  का, करके थोड़ा   सेक।

रोग  हरे   धत्तूर   दल, काम  बड़ा  ही     नेक।।


शुभमस्तु !


25.02.2025● 9.15प०मा०

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सकल साधना का सुख साधन [गीत]

 117/2025

 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सकल साधना का सुख साधन

मानव तेरी देह।


मल-मल देह धुले गंगा में

जैसे लगी मशीन

साधु संत नागा सब आए

गोरी बड़ी हसीन

अब तक के धो पाप सभी लो

रहे न तन अघ- खेह।


नेता सभी अघोरी बाबा

गबनी पापी चोर

कुंभ लगा है भारी देखो

मचा रहे हैं शोर

'पहले मैं' की होड़ लगी है

शेष न धैर्य सनेह।


वी आई पी का इंतजाम है

इनमें भी कुछ खास

आम न समझे कोई उनको

और नहीं उपहास

मानव का सैलाब उमड़ता

बहता ज्यों अवलेह।


यहाँ न पर्दा शेष न गर्दा

उछल-उछल सरि तीर

प्रथम लगा ले अपनी बारी

बन जा सबसे मीर

किस्मत के सब द्वार खुले हैं

तनिक नहीं संदेह।


'अंधा है विश्वास' कहा तो

आस्था का हो नाश

नहीं रहोगे धर्म धुरंधर

बन  शंका का ग्रास

भेड़दौड में बढ़े चलो सब

पावन कर नर गेह।


शुभमस्तु !


25.02.2025●6.45 आ०मा०

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[9:23 pm, 25/2/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 118/2025

जीव का आधार खेत [मनहरण घनाक्षरी]

 116/2025

       

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                           -1-

हरे-हरे    भरे    खेत, फूल  खिले  पीत    सेत,

वासंती   बहार    नई,    पत्र -पत्र   हँस   रहा।

डोल  उठी डाल -डाल,  देने लगीं खूब    ताल,

भव्यता    उदार    हुई,  बेलों   ने तरु    गहा।।

आया   है   किसान   खेत,तृप्त हुए नेत्र   देख,

अर्धांगिनी      नाच   रही,  नेह  निर्झर    बहा।

फागुनी   धमाल   नित्य, गगन   तेज  आदित्य,

मन   की    न   बात  कही, मन रहा है    नहा।।


                         -2-

चना   नाच - नाच कहे, मैंने   बड़े  दुःख सहे,

मोदकों से   मोद  करूँ, शक्ति  स्रोत लीजिए।

लहलहे  खेत  सभी, फूले  नीले फूल    रबी,

पकौड़ियाँ मैं  ही  तलूँ,  तत्त्व   जान लीजिए।।

अश्व शक्ति  खान  यहाँ, और  नहीं यहाँ वहाँ,

चबैना से   करे   प्रीत,   ठान    यही लीजिए।

सतुआ को सान मीत,भुना हो चना न   तीत,

पाएँ  यों   कृपा   अमीत,  प्रेम  रस पीजिए।।


                            -3-

गाँव-गाँव  खेत  खड़े,  फसलों   से सजे  बड़े,

कहीं खिले  फूल  पीत,  सरसों  बल    खाए।

गंदुम   के   खेत  सजे,   नृत्य  करें सजे-धजे,

विदा    हुआ    सभी   शीत,  अलसी  इतराए।।

गेंदा   गुलाब  सुमन,  क्यारियों   में हैं   मगन,

भौरें    बने     नित्य    मीत, झूम  चूम  सुहाए।

कुहू  - कुहू  करे  शोर, कोकिला न मौन  मोर,

खेत बाग वन   प्रीत,   किसको  नहीं   भाए।।


                         -4-

खेत    अन्नदान     करे,   मानव  का पेट   भरे,

जीवन   की   मूल   महा,  महिमा  न   भूलना।

अन्न फल  शाक  फूल, खेत  की ही स्वर्ण मूल,

लौह   स्वर्ण  सौध  सर्व, खेत  की  न   तूलना।। 

खेत  कहें  धरा  कहें,   जीव  जंतु सभी   रहें,

जीवन के   दाता     खेत,   खेत   से वसूलना।

खेत  से ही दुग्ध  सत,   विश्व   कहे जिसे घृत,

जीवन  भी  जीव   मृत, खेत  में  ही  झूलना।।


                           -5-

जीव  का  आधार  खेत,  जीव  रहें समवेत,

खेत से ही   रखें   हेत,  खेत   ही आराधना।

नगर गाँव - गाँव सभी, खेत  मनुज जिंदगी,

सींचतीं   हैं  नदी  गंग,  खेत  ही हैं साधना।।

खेत से ही प्राण  त्राण,  मानव सर्व कल्याण,

नित  नए भरें   रंग,    आपदा   का सामना।

कोई  भी  हो वेश देश,  मुक्त रहें क्लेश लेश,

जिएं  जीव  संग- संग,  जागे  सद  भावना।।

शुभमस्तु !


24.02.2025●10.45 प०मा०

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आदिवासी रहन [नवगीत]

 115/2025

          

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आदिवासी रहन ही तो

आ  रही है।


आदमी वह सभ्य उतना

नग्न जितना

खुले कंधे पीठ जाँघें

 या कि घुटना

मदहोशियत ऐसी यहाँ पर

छा रही है।


आधे अधूरे का दिखावा

नव्यता  है

ढोर वत नंगा बदन

नव सभ्यता है

अंग की भोंड़ी नुमाइश

भा  रही है।


लग रहा इतिहास फिर

वह आ रहा है

आदमी में पशुपना

नित छा रहा है

खड़े खाना या विसर्जन 

ला रही है।


शुभमस्तु !


24.02.2025●2.30 प०मा०

                ●●●

भीड़ जो कह दे [नवगीत]

114/2025

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भीड़  जो कह दे

वही  सच है सही है।


आज बहुमत का जमाना

 भले वे भेड़ ही हों

अल्पमत को कौन पूछे

तृण पेड़ ही हों

वोट से कुर्सी  मिले 

यह  कम  नहीं  है।


ज्ञान ग्रंथों में भरा

किस काम का है

ज्ञानियों का झुंड भी

बस नाम का है

दूध में जामन मिला

बनता दही है।


बहुत सारे सड़े आमों में

अकेला आम कोई

कम सड़ा काना बने

सरनाम कोई 

बाँह  कुर्सी की कसी

जकड़ी  गही है।


शुभमस्तु !


24.02.2025● 12.45प०मा०

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[2:51 pm, 24/2/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

नाचना तो नग्न ही है! [ नवगीत ]

 113/2025

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


द्वार पर पर्दे सजा लो

तुम भले ही

नाचना तो  नग्न ही है।


दिखला सको उतना

दिखा लो देह को

आँख का पानी मरा

क्या ही होगा मेह को

मन में प्रदर्शन की लगी

चाहत बड़ी

मनुज नित मग्न ही है।


फटे मैले वस्त्र हैं

शोभा हमारी

आधुनिकता चाहती

बलि भी तुम्हारी

कौन रोके 

या कि टोके

सभ्यता तो भग्न ही है।


आदमी लगते नहीं हो

आदमी हो?

आदमियत भी आदमी को

लाजमी हो?

गाय भैंसें स्वान सूकर

आदमी संलग्न ही हैं।


शुभमस्तु !


24.02.2025● 12.15प०मा०

                      ●●●

सीता [ चौपाई ]


112/2025

                   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जनकसुता       सीता       भूजाई।

राम प्रिया      जानकी      कहाई।।

पति  अनुगामिनि    सीता   माता।

रची  जगत हित   सृष्टि   विधाता।।


मिथिला  की   मिथिलेश  कुमारी।

जन्म कथा  इस जग की   न्यारी।।

हल  की  सीत   कलश   टकराई।

प्रकटी वह      सीता     कहलाई।।


गौरी    पूजन     करती     सीता।

बनी  राम जी   की    परिणीता।।

धनुष  यज्ञ   का  खेल   रचा  था।

कौन  वरे  ये   साज    सजा था।।


संयोगों     के     जनक    विधाता।

रचते     वैसा       सृजन    सुहाता।।

दसकंधर - से         भूप      पधारे।

सीता जी    के      भाग     सँवारे।।


धनुष    राम  ने     ही   वह   जीता।

मिली   धर्मिणी    अद्भुत     सीता।।

हर्षित  पिता    जननि    नर -नारी।

जीव-जंतु   सब    हुए     सुखारी।।


लिखा  भाग्य  में   वही    हुआ  है।

जीवन  जन का  कर्म  - कुँआ  है।।

वन में गमन    हरण   वन   माँहीं।

मिली  वाटिका  की  तरु    छाँहीं।।


नहीं  नियति  निज   कोई   जाने।

सीता    माता    कब    पहचाने।।

जग जननी     हैं      सीता माता।

'शुभम्'  चरण युग शीश नवाता।।


शुभमस्तु !


24.02.2025●1.00आ०मा०

                ●●●


शुभागमन ऋतुराज का [ दोहा गीतिका ]

 111/2025

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सुमन  सुशोभित  शाख पर,नभ में उड़े विहंग।

सुखी  दंपती  नेह  से,  पल  भर नहीं  निसंग।।


शुभागमन  ऋतुराज   का, फूली सरसों  खेत,

खिलते  पाटल  लाल  हैं , बिखर रहे बहु  रंग।


कुहू-कुहू   कोकिल  करे,  अमराई  के   बीच,

भँवरे   झूले   डाल  पर,  देख तितलियाँ    दंग।


पीपल    बरगद    प्रेम    से,  करते हैं   संवाद,

लाल  अधर  उनके  हुए, चमक  रहे हैं    अंग।


जाकर  कुंभ प्रयाग में, हर-हर बम- बम बोल,

लोग  कहें  यह  पुण्य   है,  नहा रहे जो   गंग।


जैसी  जिसकी   भावना,  वैसा  ही फल-लाभ,

गधा  कहे   मैं   गाय  हूँ, अब  न रहे वे    ढंग।


'शुभम्'  सयानी  नारियाँ,  कहतीं फागुन  मास,

आओ    होली  खेल  लें,बजा ढोल डफ  चंग।


शुभमस्तु !


24.02.2025●12.15 आ०मा०

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आओ होली खेल लें [ सजल ]

 110/2025

         

समांत        :अंग

पदांत         : अपदांत

मात्रा भार   : 24.

मात्रा पतन  : शून्य


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सुमन  सुशोभित  शाख पर,नभ में उड़े विहंग।

सुखी  दंपती  नेह  से,  पल  भर नहीं  निसंग।।


शुभागमन  ऋतुराज   का, फूली सरसों  खेत।

खिलते  पाटल  लाल  हैं , बिखर रहे बहु  रंग।।


कुहू-कुहू   कोकिल  करे,  अमराई  के   बीच।

भँवरे   झूले   डाल  पर,  देख तितलियाँ    दंग।।


पीपल    बरगद    प्रेम    से,  करते हैं   संवाद।

लाल  अधर  उनके  हुए, चमक  रहे हैं    अंग।।


जाकर  कुंभ प्रयाग में, हर-हर बम- बम बोल।

लोग  कहें  यह  पुण्य   है,  नहा रहे जो   गंग।।


जैसी  जिसकी   भावना,  वैसा  ही फल-लाभ।

गधा  कहे   मैं   गाय  हूँ, अब  न रहे वे    ढंग।।


'शुभम्'  सयानी  नारियाँ,  कहतीं फागुन  मास।

आओ    होली  खेल  लें,बजा ढोल डफ  चंग।।


शुभमस्तु !


24.02.2025●12.15 आ०मा०

शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

वह निश्छल महामना देवी! [संस्मरण]

 109/2025

     

©लेखक

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

यह बात सन 1982-83 की है। उस समय मैं रुहेलखंड विश्वविद्यालय बरेली का परीक्षक होने के साथ -साथ उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद,  इलाहाबाद का परीक्षक भी नियुक्त हो गया था। बीसलपुर में माताजी स्व.श्रीमती श्यामादेवी जी के मकान में रहते हुए उन्होंने मुझे सुझाव दिया कि पीलीभीत से रोज बस से आने- जाने की जरूरत नहीं है;वहीं पर उनकी सहेली श्रीमती रोहिणी देवी जी का मकान है ;वहीं पर रुक कर कॉपियाँ जाँचने का काम कर लेना। मैंने कहा ठीक है।

मई या जून का महीना था। तेज गर्मी का वातावरण था। पहले दिन मैं बहन जी रोहिणी देवी के यहाँ न रुककर बीसलपुर के ही एक अन्य अध्यापक के यहाँ रात्रि विश्राम के लिए चला गया। किंतु पहले ही दिन उस घर और परिवार का दूषित वातावरण देखा तो एक रात में ही मेरा मन भर गया।मुझे उनसे वितृष्णा हो गई। मुझे प्रतीत हुआ कि जैसे उन लोगों पर बोझ हूँ। आँखों देखी गई वास्तविक स्थिति का उल्लेख करना उचित नहीं समझते हुए उसे विलुप्त ही रखता हूँ। किंतु जो वातावरण उस परिवार के लोगों के बीच देखा ,वह मुझे सर्वथा नागवार गुजरा। जिस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती वही सब कुछ जब देखने को मिला तो उन सबसे मुझे घृणा हो गई और दूसरे दिन भोजन की बात तो दूर बिना नाश्ता किए हुए ही मैं अपने मूल्यांकन कार्य के लिए चला गया।

उसी दिन अपना काम निबटाने के बाद बहन जी रोहिणी देवी जी के घर का रुख किया। माताजी श्यामा देवी जी द्वारा बताए गए पते पर जा पहुँचा। उस समय शाम के लगभग 4-5 बजे का समय रहा होगा।घर तो मुझे मिल गया था ,किन्तु बहन जी रोहिणी देवी मुझे नहीं मिलीं। दूसरी मंजिल पर पहुँचा तो कुछ तसल्ली मिली। वहां पर उन्हीं की एक विवाहिता पुत्री ,जिसकी उम्र लगभग 24-25 वर्ष की रही होगी;मिली। उसने मुझे बताया कि अभी मम्मी तो आई नहीं हैं ,थोड़ी बहुत देर में आ जायेगीं। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया और आने का उद्देश्य भी स्पष्ट किया । उन्होंने  अपनी आत्मीयता से बहन जी के अभाव का कोई अहसास नहीं होने दिया। औपचारिक आवभगत के बाद उनकी पुत्री ने मुझे भोजन कराया और बाहर पोर्च में एक चारपाई पर बिस्तर लगा दिया ,ताकि मैं उस पर आराम कर सकूँ।

माता जी रोहिणी देवी  की बेटी ने मेरे बिस्तर के पास एक टेबिल फैन भी चला दिया ,ताकि मुझे गर्मी का अहसास न हो।थका हुआ होने के कारण थोड़ी ही देर में मुझे नींद आ गई और मैं सो गया। फिर मुझे नहीं पता कि माता जी कब आईं। उनसे भेंट सुबह ही हो सकी।पता नहीं कब पंखें की शीतल हवा में ठंडाते हुए महसूस करके उस देवी ने मुझे एक चादर  भी ओढ़ा दी। कुछ देर बाद मेरे ऊपर चादर देखकर मुझे आभास हुआ कि मैं कुछ ओढ़े हुए हूँ,तो इस अहसास से मैं अभिभूत हो उठा कि उस लड़की को मेरा कितना खयाल है कि उसने मेरी आवश्यकता महसूस की और चादर

ओढ़ाई। मैं उस बेचारी का कोई भी तो नहीं लगता  था, न पिता,न भाई,न पति न और कोई सगा सम्बन्धी ही।मानवता का ऐसा आदर्श और सुघर  निदर्शन मुझे पहले ऐसा कभी भी देखने को नहीं मिला। उस निश्छल उदार महामना नारी ने मेरे नन्हे- से हृदय के एक कोने में ऐसा स्थान बना लिया कि आज तक क्या, जीवन पर्यन्त भुला नहीं सकूँगा।  मैं उसके इस निश्चल और निश्छल स्नेह का आजीवन ऋणी रहूँगा। यद्यपि मुझे उसकी कोई छवि आज 40 वर्ष व्यतीत होने के बाद भी स्मृति में नहीं है,किंतु उसके उस पवित्र कर्म ने जो मुझे ऋणी बनाया है,वह चिर स्मरणीय है। माता रोहिणी देवी जी तो आज इस असार संसार में नहीं हैं, किन्तु उनकी वह महान बेटी मुझे कभी भुलाए नहीं भूलेगी। ईश्वर उसे स्वस्थ रहते हुए दीर्घायु करें,यही 

मेरी हार्दिक शुभ मनोकामना है। मैं उसका नाम नहीं जानता, रूप नहीं पहचानता ;किन्तु उसका काम जानता  हूँ,जिसके कारण वह मेरे पावन हृदय में विराजमान देवी है।

शुभमस्तु !

22.02.2025●12.15 प०मा०

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शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

वेदना [कुण्डलिया]

 108/2025

              


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

                         -1-

होती   तुम्हें  न वेदना,  चिंतन की यह   बात।

पीड़ित  करते  जीव को,करो मरण या   घात।।

करो  मरण  या घात,  नयन में लाज न  आए।

बाणों   की  बरसात, किसी  को  तू तड़पाए।।

'शुभम्'  उगे  वह  पौध,बीज जो जैसे   बोती।

बोए   बीज  बबूल,  शूल की  फसलें  होती।।


                         -2-

मानव   का   ब्रह्मांड   में, एक  सुघर  संयोग।

ये नर -तन  सौभाग्य  है, नहीं  मात्र उपभोग।।

नहीं   मात्र  उपभोग,  वेदना   नेह  न  जाना।

बन    जाएगा    रोग,  रहे    नित ऐंचकताना।।

'शुभम्'  चले सह नीति,न हो कर्मों से   दानव।

सहे  वेदना    देह,  बने    रहना     है   मानव।।


                         -3-

योगी  भोगी   हैं   सभी,  मानव  के बहुरूप।

कर्मो का   परिणाम   है,  मिलें शृंग भवकूप।।

मिलें   शृंग   भवकूप,  वेदना  को जो   जाने।

वही जीव को जीव , मनुज  को मानव माने।

'शुभम्' घूमते  श्वान,कहीं  पशु लँगड़े  रोगी।

करते  जो   सत्कर्म,  वही   बनते नर  योगी।।


                         -4-

साधन   की  उपलब्धता,  मानव  का  उपहार।

पशुवत   जीवन  जी  रहा,नहीं वेदना  प्यार।।

नहीं   वेदना  प्यार, मोह  ममता ज्यों   वानर।

सूकर मछली श्वान,कभी  फिरता ज्यों वनचर।।

'शुभम्'  वेदना  मूल, सदा  कर  प्रभु आराधन।

हाथ पाँव  मष्तिष्क,   सभी   हैं   तेरे   साधन।।


                         -5-

समता  का  सद  भाव  हो,  हिंस्र भाव  से दूर।

भाव   हितैषी   हो   सदा,  ममता  से  भरपूर।।

ममता    से    भरपूर,   नहीं    त्यागे मानवता।

बने   न   पशुवत   शूर,   क्रूरता   या दानवता।।

'शुभम्'  वेदना जन्य , मनों   में मारुति  दृढ़ता।

लघुता - गुरुता   छोड़, बसे मन साँची  समता।।

शुभमस्तु !


20.02.2025●8.45प०मा०

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सभी धो रहे मैल देह का [ नवगीत ]

107/2025

 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सभी धो रहे मैल देह का

मन की बात नहीं।


टनों मैल पानी में गिरता

खारीपन  बढ़ जाए

तुम तो निपट लिए मैलों से

सागर कहाँ  समाए

बादल बनकर बरसे तुम पर

यह उपहास  नहीं।


महाकुम्भ को साबुन समझा

मल-मल  धोई देह

कर्मों के फल मिलते सबको

तभी घुसोगे  गेह

जाति - जाति की रटन लगाए

अब क्या जात नहीं।


पुण्य सत्य तो पाप न मिथ्या

कर्मों का सब खेल

गंगाजल से शुद्ध न होना

लिखी हुई जो जेल

वहाँ दूध का दूध मिलेगा

दिन की रात नहीं।


बिना टिकिट ट्रेनों से आया

पुण्य किया या पाप?

बतला दे ऐ मूरख नादां

पाप तुम्हारा  बाप!

बन लकीर का तू फ़कीर क्यों

आदमजात नहीं ?


शुभमस्तु !


20.02.2025● 4.45प०मा०

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[8:45 pm, 20/2/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

ईमानदार पापी [ हास्य- अतुकांतिका ]

 106/2025

          

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अब  पता चल गया मुझे

ये  महाकुंभ - स्नान नहीं

ये पाप -पुण्य का छलना है

थोड़े से दिन और शेष हैं

बता दो अभी 

किसे और चलना है,

फिर मत कहना कि 

बताया नहीं

हम चले जाते 

तो पापों के बोझ से

हलके हो आते।


देखों कैसे प्रकृति ने

न्याय कर दिया

पापी और पुण्यात्माओं को

अलग -अलग कर दिया,

पुण्यात्मा इधर और

पापात्मा    उधर,

हम तो गए नहीं

आप अपनी जानें,

हम अपनी आत्मा को

पापी क्यों मानें !


चलो अच्छा ही हुआ 

आप पाप बोझ से

हलके तो हो आए,

मगर नहीं जाने पर

हम कण भर नहीं पछताए।


हमारे लिए तो भू माँ ही

पवित्र गङ्गा है, 

अपने छोटे से नहान घर में

'शुभम्' जहाँ अधनंगा है।

मुझे कोई आपत्ति नहीं

कि आपने वहाँ जाकर 

जता दिया कि आप 

ईमानदार पापी हैं।


शुभमस्तु !


20.02.2025●3.45 प०मा०

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अमराई खिलखिलाए! [ नवगीत ]

 105/2025

       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सब आम हँस रहे हैं

अमराई खिलखिलाए।


टेसू मशाल लेकर

आया है पथ दिखाने

खेतों में नाचे सरसों

गोधूम   को  रिझाने

लटका हुआ चने का

होला  हवा झुलाए।


आधी ही रात गुजरी

महुआ  महक रहा है

अमराइयों  में  बैठा

कोकिल चहक रहा है

गमला गुलाब का भी

बँगले  में झिलमिलाए।


अरुणिम हैं होंठ पतले

बरगद  जटाएँ  खोले

लगता है आज पीपल

अधरों से  बात बोले

ओटों  में  मोरे  दुबके

नचते हैं  गुनगुनाए।


आते ही ब्रह्मवेला

तमचूर  आ गए हैं

गलियाँ कुकड़ कूँ बोलें

कवियों को भा गए हैं

मंदिर में घण्टे खनके

घंटियाँ भी खनखनाए।


शुभमस्तु !


20.02.2025● 1.00प०मा०

जिंदगी जुआ नहीं! [ नवगीत ]

 104/2025

         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जिंदगी  जुआ नहीं

दाँव पर लगाना क्यों ?


पगडंडियाँ बहुत सी हैं

पहचाननी तो होंगी ही

रँग लेते  जो  कपड़े 

होते न सभी ढोंगी ही

जिंदगी कोई कुँआ नहीं

कूद वहाँ जाना क्यों ?


कौवा  करे   कुहू- कुहू

कौन उसे  मानेगा 

समझेगा कोकिल क्यों

नकली  ही  जानेगा

चाल चले हंसों की

वहम में फँसाना  क्यों?


गंगा  में  नहाने  से

गदहा रहे गदहा ही

होना नहीं गौ माता

शक नहीं शुबहा नहीं

जो है सो दिखने में

तुमको यों लजाना क्यों?


शुभमस्तु !


20.02.2025●12.15प०मा०

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छंद [ सोरठा ]

 103/2025

                        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप  'शुभम्'


त्यों जीवन में छंद,लय रस गति ज्यों काव्य में।

उनके   भाव  अमंद,  सब   ही   होने  चाहिए।।

कविता के  हर  छंद, भाव  सदा अनिवार्य  है।

उड़ता   गगन     परंद,  वैसे  हृदयाकाश   में।।


कविता    हो  रसदार, छंद बद्ध  या मुक्त   हो।

बिंब   करे  साकार,  भाव  राशि उत्ताल   कर।।

सबका  अलग    महत्त्व, वर्ण और मात्रा  सभी।

नष्ट  न  अपना  सत्त्व, छंद करे चमकार    यों।।


विविध  रंग  के  छंद, भाषा विविध प्रकार  की।

तीव्र चलें  कुछ मंद,  लघुतम और विशाल हैं।।

सबकी  अलग  पसंद, सरितावत कविता बहे।

कभी  बहे  नव  छंद,कभी परिंदों -सी   उड़े।।


बहुत यहाँ  पर लोग, लिप्त सदा छल -छंद में।

प्रसरित   करते   रोग, उत्पीड़न दें अन्य   को।।

प्रसरित   हो   मकरंद,जीवन  में सुर ताल   से।

सुघर  मुखर हो छंद,तब ही जीवन काव्य  का।।


वीर      सवैया    छंद,   दोहा   रोला सोरठा।

सबकी    पृथक   पसंद,क्रीड़ा  तिंना  चंचला।।

छंद   राज्य   का देश, एक  अलग संसार   है।

सुघर-सुघर  धर वेश,  काव्य -धरा में सोहता।।


शुभमस्तु !


19.02.2025●9.30 प०मा०

बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

आदमजात खिलाड़ी [नवगीत]

 102/2025

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बनकर मूढ़ चाटता रबड़ी

आदमजात      खिलाड़ी।


करना पड़े नहीं तन-मन से

कहता मुझे न आता

लुल्ल बना फुल तनखा पाए

नित ही ढोंग रचाता

इधर -उधर ही रहता बचके

चलता नहीं अगाड़ी।


जान-बूझ कर गलती करता

हाथ खड़े कर देना

रोज रोज का नाटक करना

गुप-चुप अंडे सेना

पहले से ही मैं कहता था

मैं तो निपट अनाड़ी।


कब तक खुलती पोल न सारी

रहते बने सिपाही

नहीं दरोगा तक भी पहुँचे

गप्पू सिंह गवाही

खड़ी हुई है अभी वहीं पर

चली  जहाँ से गाड़ी।


शुभमस्तु !


19.02.2025●4.45 प०मा०

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परचम है लहराया [नवगीत]

 101/2025

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्


शान-शौक में बरबादी का

परचम है लहराया।


दबा कर्ज -पत्थर के नीचे

बिका खेत घर बार

पीले हाथ किए बेटी के

करता  द्वाराचार

कर्जादाता  फोन कर रहा

घनन-घनन गहराया।


बकरा गया जान से पूरा

स्वाद न उनको आया

ताबीजों में बची न दाढ़ी 

बुरे  वक्त  का  साया

फिरता बचा -बचा नजरों से

फिरता है बहराया।


पूरा  लिया दहेज गिनाकर

और  चाहता भेंट

सौ- सौ के ही नोट चाहिए

ढिल्ली  अपनी पेंट

जामाता जम बनकर आया

फैलाता है माया।


शुभमस्तु !


19.02.2025●4.15प०मा०

पंगत बदल गई [ नवगीत ]

 100/2025

                

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


तौर तरीके बदले सारे

पंगत बदल गई।


पूछ- पूछ कर पूड़ी परसें

बात पुरानी है

कोई नहीं किसी को पूछे

नई कहानी है

प्यार भरी वे आँखें बदलीं

रंगत बदल गई।


भरी नाद पर भैंस सैकड़ों

लगा कतारें ठाड़ी

टपक रहा रसगुल्ला देखो

लिथड़ रही है दाढ़ी

मारामार मची खाने को

संगत बदल गई।


खड़े-खड़े ही खाना-पीना 

खड़ी सभ्यता  दूर

नया जमाना नई जवानी

सपने   चकनाचूर

डीजे  बजता हुई धमाधम

मंगत बदल गई।


लिए हाथ में खाली दौना

जैसे खड़े भिखारी

है तंदूर अभी तो ठंडा

उसकी  भी लाचारी

बुफे बफैलो का ही  भैया

पंगत बदल गई।


शुभमस्तु !


19.02.2025● 4.00प०मा०

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यौवन काल वसंत [ दोहा ]

 099/2025

            

[वसंत,बहार,मधुमास,कुसुमाकर,ऋतुराज]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप शुभम्'


                 सब में एक

यौवन - काल   वसंत है,  जीवन वृक्ष   रसाल।

पाप-पुण्य दो फल लगे,झुकी विटप की डाल।।

अलि दल गुंजन  कर रहे, आया काल   वसंत।

सुमन खिलें कलियाँ  हँसीं,अभी न आए कन्त।।


बार-बार   यौवन   नहीं, लौटे   नहीं  बहार।

आनंदित   होना  हमें, करना प्रथम विचार।।

जो बहार रस  गंध  को, बिसर गया  नर मूढ़।

गज - आरोहण  छोड़कर, गर्दभ पर आरूढ़।।


चैत्र   और    वैशाख   हैं,  मुस्काते मधुमास।

जाग रही  नवचेतना,  बढ़ता  प्रबल उजास।।

अमराई   बौरा  गई,    तितली  भँवरे    झूम।

आया   है  मधुमास  ये,रहे  भ्रमर  मधु  चूम।।


कुसुमाकर - सौंदर्य  से,अग-जग हुआ निहाल।

कोकिल    गाए  फाग को, पीपल देता    ताल।।

आँचल  में  तिय के खिले, कुसुमाकर के फूल।

उनकी   तेज   सुगंध   से, गई अपनपा   भूल।।


मंच सजा ऋतुराज   का,जड़- चेतन रस लीन।

अलिदल  चूमें  फूल को,सरि जल उछलें   मीन।।

आए   हैं   ऋतुराज जी, अभिनंदन    के  हेत।

सजे   बाग- वन    नेह  से, नृत्य कर रहे    खेत।।


                एक में सब

कुसुमाकर ऋतुराज ये,सब वसंत  मधुमास।

राजा  सदा बहार  है,  करे    सुमन तरु   वास।।


शुभमस्तु !


19.02.2025●4.45 आ०मा०

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बजट शुभंकर ही बने [ दोहा ]

 098/2025

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बजट जिंदगी का बड़ा,प्रथम रखे यह   ध्यान।

पहले   उसे  सँभाल   ले,मत तू  तान  कमान।।

क्या आमद क्या खर्च हो,यही बजट का खेल।

जहाँ   संतुलन   भंग  हो,  बने  जिंदगी  जेल।।2।


आय व्ययक का पत्र है, बजट कहें सब  लोग।

गए    फिरंगी    लौट वे,  छोड़  गए ये      रोग।।

बजट कर्म का जान ले,क्या करना सत  कर्म।

पूजा  माने  कर्म को , यही  मनुज का   धर्म।।4।


घर  हो या व्यापार  हो, बजट बनाना   सीख।

है    इससे   अनभिज्ञ  तो,   माँगेगा तू   भीख।।

श्वास-बजट सबको मिला,नाप तौल कर मित्र।

गिन-गिन कर है खर्चना,उड़ा न ज्यों अति इत्र।।6।


बजट   बनाये  देश   का,  भारत की सरकार।

जनता को सुख शांति हो,बढ़े  विशद व्यापार।।

बजट बिना  अनुमान  से,चलें न सारे  काज।

उत्तम  पत्रक  जब बने, सही चले शुभ   राज।।8।


कितना ही अच्छा बने, कभी बजट  का  पत्र।

सदा   विपक्षी  नोंचते,  जब  चलता है    सत्र।।

कभी   विपक्षी   वर्ग  को, बजट न भाए  तुच्छ।

टेढ़ी   भौंहें    वे    करें,  वृथा    ऐंठते  मुच्छ।।10।


सत्ता  जिसके   हाथ  में,जान रहे शुभ लाभ।

 बजट शुभंकर  ही  बना,देते अमृत -  आभ।।11।


शुभमस्तु !


18.02.2025●9.15 प०मा०

                  ●●●

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

आदमियत चाहिए [ नवगीत ]

 097/2025

             


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आदमी को आदमी से

आदमियत चाहिए।


भेड़ों में भेड़चाल

अचरज  की बात नहीं

साँपों में डंसने की

नई-नई    घात सही

दुर्लभ है आदमी में

आदमियत चाहिए।


लौकी सेम भिंडी से

दूर होता आदमी

आदमी में आदमी का

अंश मिले लाजमी

मुखौटे में भेड़िया है

आदमियत चाहिए!


कानून की रज्जु बँधा

कहलाता आदमी

कानून जो भंग करे

वही आज आदमी

भेड़ भरे रेवड़ में

आदमियत चाहिए।


शुभमस्तु !


18.02.2025●3.00प०मा०

                    ●●●

मोर लड़खड़ाते हैं [ नवगीत ]

 096/2025

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


छतों की मुँडेरों पर

मोर लड़खड़ाते हैं।


'पहले मैं'

'पहले मैं'

यही एक शोर है

अंतर में 

आदमी के 

विद्यमान चोर है

कबूतर जो

छोड़े थे

यहाँ फड़फड़ाते हैं।


पुण्य बीच

पाप उगा

लाशों का ढेर है

भौचक्का 

प्रशासन है

बड़ा  अंधेर है

पिलाते जो उपदेश

सभी हड़बड़ाते हैं।


शांति के

पुजारी नर-नारी

हुए क्लीव हैं

धर्म गया

भाड़ में 

फूटते नसीब हैं

पंख नुची 

मछली - से

गोती तड़पड़ाते हैं।


शुभमस्तु !


18.02.2025●1.45 प०मा०

                   ●●●

गगन सुमंत्र है [ मनहरण घनाक्षरी ]

 095/2025

           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

पंच तत्त्व में है एक,स्वच्छ  ज्यों तना   विवेक,

नीला  है  गगन  नेक, रूप  है विस्तार   का।

समाया   ब्रह्मांड  सब,  यदा-कदा करे   रव,

शांति का स्वरूप नभ, यूप  ज्यों विचार का।।

देह  गेह  में   समान,   ताने   हुए   है  वितान,

प्राण   की  धारे  कमान,रूप ज्यों असार का।

आइए    विचार    करें, शुद्ध  शून्य उर    भरें,

सर्व    कुविचार   हरें,  विविध प्रकार     का।।


                         -2-

गगन   में    मगन    हैं,    लगी  हुई  लगन    है,

साधक   का  जतन  है,  साधना   तो   कीजिए।

प्राणायाम   भाँति-भाँति, कीजिए कपालभाति,

साधना  से  बिंदु   स्वाति,  प्राप्त  कर  लीजिए।।

शीतली    उद्गीथ   करें, किंचित  भी नहीं   डरें,

उज्जाई  या  भ्रामरी भी, समय  मित्र   दीजिए।

भस्त्रिका    अनुलोम  ये,करना  है  विलोम  भी,

ब्रह्मरंध्र       भर      सभी,     प्राणसुधा  पीजिए।।


                         -3-

उड़ते   गगन   बीच,   लगें    सूर्य  के    नगीच,

छोटे-बड़े   खग   सभी,  नीली    नम्र  दिव्यता।

चील   बाज   कीर  धीर, पंख  धर  तैर    वीर,

मंद - मंद   है   समीर,   नित्य   भव्य  नव्यता।

कवि - मन   डोल रहा, विहंगों- सा तोल  रहा,

राज   नए   खोल   रहा,  जाने  कौन  गम्यता।

पहुँचे   न   रवि   जहाँ,  पहुँचा  है कवि   वहाँ,

यहाँ- वहाँ    जहाँ-तहाँ,   कवि   की सुरम्यता।


                         -4-

मस्त - मस्त  झूमें  हम,  उड़ने  में कौन    कम,

गगन - विस्तार    सम,   बाधा    नहीं  जानते।

आया  ऋतुराज  आज,सजाया है दिव्य  साज,

रखे     शीश   भव्य   ताज, टेक  नई    ठानते।।

गाँव  खेत   गैल - गैल,    सुमनों  की   रेलपेल,

भौरें   करें     रस   खेल,   टोक  नहीं     मानते।

उड़    रहीं   गगन   बीच, तितलियाँ हैं    नगीच,

मधुपान     में    हैं   लीन,   लेश   नहीं   छानते।


                          -5-

बाँहों  को  विशाल  खोल, लेश  मात्र नहीं बोल,

काया   में    है  गोल- गोल,   गगन सुमंत्र    है।

मौन    में   महान    नेक,  करे  नहीं   अतिरेक,

मानुसीय   ज्यों   विवेक,   पूर्णतः स्वतंत्र     है।।

देह  में   विराजमान, फुफ्फुसों की दिव्य जान,

प्राण   कान   भी  प्रमाण,  कान  तो  सुयंत्र   है।

रोक   और   टोक  नहीं,   है  प्रवेश सब   वहीं,

खुला   हो  जो  द्वार  तहीं,सूक्ष्म एक   रंध्र   है।।

शुभमस्तु !


18.02.2025●7.15 आ०मा०

                      ●●●

आया ऋतुराज [ गीत ]

 094/2025

                  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आया ऋतुराज

पीत हरित वसन ओढ़

कली- कली हँसने लगी।


यहाँ वहाँ

जझाँ तहाँ

हरियाली  छा गई

भँवरे गुंजार उठे

तितलियाँ फूल-फूल

सबको ही भा गई

मधुमाखी 

झूम-झूम

गली-गली दिखने लगी।


अमराई में 

कोयलों की

कुहू -कुहू हो रही

पछुआ करे

जोर शोर

पिड़कुलिया सो रही

अंग भरें गरमाई

मन्मथ नव जागरण

देह उमसने लगी।


कोंपलें हैं 

लाल लाल

शिंशुपा वट नीम की

बौराई 

अमराई

हरियाली बरसीम की

अंगों में रंग नए

टेसू गुलाल भर

अँगड़ाई  रिसने लगी।


शुभमस्तु !


17.02.2025●10.45प०मा०

                  ●●●

फूल खिलने को दरमियाँ चाहिए [ नवगीत ]

 093/2025

  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आशाओं के फूल

खिलने को

दरमियाँ  भी  चाहिए।


भटकते ही हैं

हम कभी न कभी

मंजिल  नहीं मिलती

मुरझा भी जाती हैं

अधखिली कलियाँ

हर कली नहीं खिलती

कली-कली को

जो जगा पाए

सुरभियाँ भी चाहिए।


कभी तेज

धूप है

कभी   झिंझोड़ती हवाएँ

उड़ती हुई 

धूल कभी

कहर ढहाती-सी फिजाएँ

सोए हुओं को

जगाने के लिए

मुर्गे -मुर्गियाँ  भी चाहिए।


चला चल तू

राह में अपनी

रुकना ही नहीं है

क्या पता

दो ही कदम पर

मंजिल भी यहीं है

चाहें बहार वर्षा की

दहकती- चहकती

गर्मियाँ  भी चाहिए।


शुभमस्तु !


17.02.2025●11.45 आ०मा० 

                     ●●●

जो मैंने अपराध किए [ नवगीत ]

 092/2025

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अपने कल में

 ढूँढ़ रहा हूँ

जो मैंने अपराध  किए।


मैं भी दूध 

धुला ही कब था

जाने  या अनजाने में

छोटे - बड़े 

किए बहु होंगे

लिखे नहीं जो थाने में

कुछ को भुगत

लिया भी होगा

जो न कभी स्वीकार किए।


अपने दोष

अन्य पर थोपे

बगुला भगत  आज इंसान

मैं भी उनमें

एक रहा हूँ

बन अतीत का वह शैतान

फाड़ दिए जो

वसन जानकर 

कभी न अब तक सभी सिए।


इन बीजों में

पेड़ छिपे हैं

जब भी वे बाहर आएँ

कड़ुआ नीम

मधुर है सौरभ

या बबूल जो चुभ जाएँ

एक दिवस

दुनिया देखेगी

जले बुझे वे सभी दिये।


शुभमस्तु !


17.02.2025● 11.15आ०मा०

                   ●●●

मानव का तन एक किला [गीतिका ]

 091/2025

     


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मानव  का   तन  एक   किला  है।

बड़े  भाग्य   से  तुम्हें    मिला  है।।


खुले  द्वार  नौ     एक      बंद   है,

दल  हजार का  फूल   खिला  है।


श्वासों    के    आने -  जाने      के,

छिद्र  उभय  नर को   न गिला  है।


उर   की  धड़कन  से   है   जीवन,

धड़-धड़ पल-पल   रहा  हिला  है।


हुआ   जागरण  रुके   न   रसना,

नहीं   जीभ  का  भार   झिला  है।


आम  पिलपिला  जब    हो जाता,

वही    शाख  से  सदा   रिला    है।


'शुभम्'  नहीं    खो  हे  नर जीवन,

मनुज-योनि यह  एक   *तिला  है।


*तिला= स्वर्ण।


शुभमस्तु !


17.02.2025●5.30आ०मा०

                 ●●●

मनुज योनि यह एक तिला [सजल]

 090/2025

    

समांत        : इला

पदांत         : है

मात्राभार     : 16.

मात्रा पतन   : शून्य


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मानव  का   तन  एक   किला  है।

बड़े  भाग्य   से  तुम्हें    मिला  है।।


खुले  द्वार  नौ     एक      बंद   है।

दल  हजार का  फूल   खिला  है।।


श्वासों    के    आने -  जाने      के।

छिद्र  उभय  नर को   न गिला  है।।


उर   की  धड़कन  से   है   जीवन।

धड़-धड़ पल-पल   रहा  हिला  है।।


हुआ   जागरण  रुके   न   रसना।

नहीं   जीभ  का  भार   झिला  है।।


आम  पिलपिला  जब    हो जाता।

वही    शाख  से  सदा   रिला    है।।


'शुभम्'  नहीं    खो  हे  नर जीवन।

मनुज-योनि यह  एक   *तिला  है।।


*तिला= स्वर्ण।


शुभमस्तु !


17.02.2025●5.30आ०मा०

                 ●●●

पहले मैं'!! [व्यंग्य]

088/2025

                

 व्यंग्यकार

 ©डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 जनता से लेकर नेता तक,चमचा से लेकर भगौना तक,चम्मच से लेकर दौना तक,वाचाल से लेकर मौना तक 'पहले मैं' का फॉर्मूला लागू है। 'पहले आप' तो केवल सैद्धांतिक सत्य हो सकता है,किंतु हर आदमी और औरत को 'पहले मुझे' , 'पहले में' , 'पहले मेरा' का संस्कार मन में रचा -बसा है।वह नहीं चाहता/चाहती कि किसी और को कुछ भी पहले मिले! यदि मिले तो मुझे ही पहले मिले। अब इस भावना के क्या लाभ या हानियाँ हैं;उनका विचार-विमर्श आगे करने पर ही पता चलेगा। इतना अवश्य है कि इस धरा धाम पर सब 'पहले मैं' की होड़ मची हुई है।

 कभी मंदिरों में ,कभी स्नान घाटों पर,कभी रेलवे स्टेशनों पर, कभी बुफे स्टालों पर, कभी बड़े- बड़े समारोहों में 'पहले मैं' के लिए लोग आदमी को आदमी न समझकर उन्हें कुचलते -रौंदते हुए बेतहासा दौड़ पड़ते हैं। 'पहले मैं' यह की हास्यास्पद भीड़ हृयविदारक बन जाती है।अखबार ,टीवी और सोशल मीडिया की सुर्खियाँ बन जाती है।

 यहाँ कोई किसी का शुभचिंतक नहीं है। सबको अपनी पड़ी है। सब अपनी खुशहाली के लिए परेशान हैं। 'भाड़ में जाए जनता,अपना काम बनता।' बस यही सूत्र यत्र तत्र सर्वत्र काम कर रहा है।किसी को धैर्य नहीं है। जब कि धर्म के दस लक्षणों में धैर्य को चोटी का स्थान मिला हुआ है।दूसरों को धर्म के लक्षणों की सीख देने वाले सर्वाधिक अधेर्यवान सिद्ध साबित हो रहे हैं। यदि 'पहले मैं' की बात न होती तो महाकुंभ में भीड़ की भेड़चाल भेड़दौड़ में न बदलती और इतने अधिक नर नारी और बाल वृद्ध हताहत नहीं होते। हर मनुष्य का यह कर्यव्य हो जाता है कि वह ऐसे अवसरों पर पहले दूसरों को अवसर प्रदान करे। किन्तु जब स्व- धैर्य ही मर जाए तो भगदड़ तो मचेगी ही और पहले लड्डू खाने की ललक उसकी जान ही ले लेगी। लोग सोचते होंगे कि कहीं त्रिवेणी का जल ही खत्म हो जाए और वे नहा कर पुण्य लाभ अर्जित करने से वंचित हो जाएँ। 

 1991 में शीतलाखेत(अल्मोड़ा) की उच्च पर्वतीय शीतल चोटियों पर रोवर स्काउट लीडर की ट्रेनिंग लेते समय हमें यह सिखाया गया था कि स्काउट का संदेश वाक्य है 'मैं नहीं, पहले आप' ,जिसे हमने कदम -कदम पर सत्य होते हुए देखा और अनुभव किया। इसके विपरीत जब जन समाज और देश की ओर देखा तो इसके विपरीत ही पाया। अब चाहे राशन की दुकान हो या गैस वितरण की कतार ,शादी ब्याह में बफर की दावत हो या मेलों की भीड़ ;सब जगह 'पहले मैं' का रूप ही साकार होता हुआ पाया।

 सिद्धांत और व्यवहार का यह अंतर ही 'पहले मैं' सूत्रधार है। हर आदमी अपने से आगे जाता हुआ किसी को देखना नहीं चाहता। मुँह में राम बगल में छुरी का यह बहुत सुंदर प्रतिदर्श है। इस भेड़दौड़ से भेड़चाल ही बेहतर है क्योंकि भेड़ों में इतना धैर्य तो है ,जो आदमी में नहीं है।सही अर्थ में भेड़ें धैर्य का जीवंत स्वरूप हैं। धैर्य का आदर्श हैं। भले ही वे एक कूप में गिरें ,किंतु धैर्य के साथ ही। वे हड़बड़ी में ऐसा नहीं करतीं। उन्हें कोई जल्दी नहीं आगे वाली से भी आगे जाने की। 'चरैवेति चरैवेति' के सिद्धांत सूत्र की वे सच्ची अनुगामिनी हैं। वे 'पहले मैं ' ,'पहले मैं ' से जान गँवाने में कोई रुचि नहीं रखतीं। 

 आदमी तो भेड़ से भी पीछे छूट गया। बेतहासा दौड़ती हुई भीड़ का विहंगम दृश्य कितना हास्यास्पद लगता है,यह अकल्पनीय नहीं है।मानो आदमी की बुद्धि पगला गई हो। यह लुटेरी वृत्ति कदापि शोभनीय नहीं है। मरने वालों पर हँसा तो नहीं जा सकता। किन्तु आदमी जैसे 'बुद्धिमान', 'प्रज्ञावान', 'धनवान' और 'महामानव' की बुद्धि पर तरस तो खाया ही जा सकता है। मिलावटखोरी जिनके लिए पाप नहीं है, गबन जिनके लिए अपराध नहीं है, रिश्वत लेना जिनका धर्म है, ठग लेना जिनका कर्म है, अपहरण,चोरी ,हत्या, बलात्कार जिनके खून में समाए हैं ,वे त्रिवेणी नहाकर पुण्य के बोरे भर लाए हैं। 'पहले मैं' के पुण्य प्रताप को वे लूट लाए हैं। जिन देशों में गङ्गा नहीं ,वे या तो बहुत बड़े अभागे हैं या पाप ही न करते हों,ऐसा भी हो सकता है। मर्ज की दवा होती है। जहां मरीज न हों ,वहाँ हॉस्पिटल खोलकर भी क्या होगा ?

 कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि आदमी 'अधैर्य की प्रतिमूर्ति' है। वह सबसे पहले अपना भला चाहता है। सब जाएँ भाड़ में, पहले उसका काम हो जाए। 'मैं', 'मेरा', 'मेरे' का यह दुर -भाव जन हितकारी तो कदापि नहीं हो सकता। वह समय अब नहीं रहा जब हमारे मन और मानवों में यह वाणी गूँजती रहती थी:

 'सर्वे   भवंतु    सुखिनः    सर्वे      संतु   मिरामया: 

सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित दुःखभाक भवेत।'

 आज सर्वत्र यही गूँज रहा है: 

सदा सुखी मैं ही रहूँ,    मैं     ही  रहूँ निरोग। 

देखूँ मैं अच्छा- भला,दुख का मुझे न योग।।

 गङ्गा में पहले लगे,  गोता   मेरा    एक। 

मैं ही पहले पूज्य हूँ, मुझसे और न नेक।।

 लिए कटोरा हाथ में,खड़ा बफर के बीच।

 तंदूरी रोटी मुझे,  लूँ  पहले    मैं   खींच।। 

 भेड़दौड़ में मैं  चलूँ,  आगे - आगे   दौड़।

 सभी रहें पीछे खड़े, टापें निज सिर फोड़।।

 'पहले मैं' के मंत्र का, करता हूँ मैं जाप। 

पहले ही पा लूँ सभी, कर्म न कोई पाप।। 

शुभमस्तु !


 16.02.2025 ●12.15 प०मा० ●●●


संगम [ चौपाई ]

 089/2025

                 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


संगम  -  घाट       नहाओ   भाई।

धुले  पाप      की      मैली     काई।।

जो    नर  संगम -  घाट     नहाते।

पल में  पाप   शमन    कर    जाते।।


गंगा  - यमुना     मिलतीं    सरिता।

पाप  नाशिनी   पुण्य    सु भरिता।।

भर-  भर    ट्रेन   बसों    में   जाते।

संगम से जल    भर कर  लाते।।


पुण्य     हजारों     जो    करते   हैं।

वे क्यों     पुण्य  और    भरते  हैं??

पुण्यवान   क्यों     नहा    रहे    हैं।

संगम  में  सब   पाप    बहे   हैं??


है  संगम    प्रयाग     में     सुंदर।

बन  जाता  क्या   पाप     पुरंदर??

लाख  करोड़ों       खूब     नहाएँ।

पाप     घटा    घर   वापस  आएँ।।


मैले   वस्त्र     सभी     हैं     धोते।

पाप    घटाते     देह       भिगोते।।

संगम  भारत का   अघ  शामी।

साधु    संत    नेता     जन कामी।।


संत     अघोरी         नागा    जाते।

संगम  जा    अचरज दिखलाते।।

संन्यासी     धर     चीवर      पीले।

नित्य  नहाते        शिष्य   सजीले।।


संगम    की   शुचि  शोभन महिमा।

व्यक्ति     बढ़ाए     अपनी   गरिमा।।

न   हो    मनों  से   संगम   मन  का।

क्या   होता   है   धोकर    तन   का।।


शुभमस्तु !


16.02.2025●8.00 प०मा०

                  ●●●

रविवार, 16 फ़रवरी 2025

आयौ ऋतुराज [ दुर्मिल सवैया ]

 087/2025

               


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                          -1-

अब फागुन मास लगौ अवनी,

                            सरसाइ उठे वट नीम लता।

वन बागनु में खिलतीं कलियाँ,

                      नम भूमि बढ़ी तृण की तृणता।।

सब पाटल लाल गुलाल भए,

                             नव गंदुम नाच रहा रमता।

वन माँहि पलाश हुलास भरें,

                          प्रिय सेमल राह खड़ा फबता।।


                            -2- 

बहु फूल खिले वन बागनु में,

                            सब फूलनु पै उड़ती तितली।

अलि झूमि रहे रस चूसि रहे,

                          हिलि बेलनु की हरषाइ कली।।

मधु चूसि रही  मधुमाखि  उड़ी,

                             महकाइ उठी उत कुंज गली।

उड़ि कोकिल गाइ रही अमुआ,

                          तिय कामु सताय रहौ सबली।।


                         -3-  

मधुमास   नयौ    मनभावन   है, 

                           नव पुष्प खिले वन बागन में।

नर-नारि   बड़े   सुख-चैन   करें,

                          रँग लाल हरा  फबि फागुन में।।

पिचकारि चलें भरि नैननु  की,

                               बरसावत बादल सावन में।

घनश्याम  इते  उत हैं सखियाँ,

                                इत गोकुल में बिंदरावन में।।


                         -4-

पतझार भयौ नव कोंपल हैं,

                             अधराधर लाल भए तरु के।

मुस्काइ  रहे  दल  पत्र   नए  ,

                          रज चूमि रही अँचरा मरु के।।

वट  शीशम  नीम  रसाल  नए,

                               रँगरेज भए पाटल घर के।

धरणी  हरषाय    रही    सिगरी ,

                             मुखड़े मुस्काय रहे  वर के।।


                         -5-

घनश्याम   चले   रँग  खेलन को,

                             ब्रजगैल मिली सखि एक नई।

लड़ि  आँखिनु  आँख गई उनकी,

                            निज हाथ लई पिचकारि नई।।

उततें  वृषभानु   कुमारि   मिली,

                               दृग दृष्टि भई  नवकंज मई।

कछु बोल न  नेंक कढ़े  मुख सों,

                          मुख पै छवि आवत भाव कई।।

शुभमस्तु !


14.02.2025● 9.00प०मा०

                      ●●●

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

महुआ की रातें [अतुकांतिका ]

 086/2025

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


टेसू के दिन

महुआ की रातें

करने लगी बातें

फगुनाहट आ गई।


कुहू- कुहू करे 

कोयलिया

अमराई के बीच,

नाच रहे मोर 

बाग वन छत या मुंडेर।


उड़ने लगा

रँग गुलाल

बज उठे ढोल,

पिचकारी

 निकल आई

छोड़े फुहारें तोल।


चना झूमे

मटर नाचे

नाच रहे गेहूँ,

पिड़कुलिया 

बोल उठी

जय जय श्रीराम।


फागुन की हवा नई

इधर उधर बह रही

वियोगिनि उदास हुई

सजन क्यों आए नहीं।


'शुभम्' ऋतुराज आए

सजाए सभी साज

होली की चंग बजे

ढोलक डफ बज उठे

मन्मथ का आगाज।


शुभमस्तु !


13.02.2025●9.30 प०मा०

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सेवा से मेवा मिले [कुंडलिया]

 085/2025

            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

                         -1-

सेवा    से    मेवा    मिले,   करके  देखो     आज।

मात-पिता  को   पूजिए, नित्य सजा  कर  साज।।

नित्य  सजाकर   साज, हृदय  की तुष्टि    प्रदाता।

प्रापक के सुख काज,गीत तन- कण- कण गाता।।

'शुभम्'     पूज्यता    पात्र,  सदा  नैया   के   खेवा।

नियमित  समय    निकाल, करें गुरुजन  की सेवा।।


                         -2-

मानव  का यह  धर्म  है, कर  गुरुवर की  भक्ति।

सेवा निज पितु-मात की,जन-जन से अनुरक्ति।।

जन-जन   से  अनुरक्ति, देश-सेवा जो  करता।

मिले  उसे  हर  शक्ति, नहीं  असमय है  मरता।।

'शुभम्'   वहीं  सौभाग्य,नहीं होता नर   दानव।

सेवा   है   शुभ   कर्म, बने   रहना  है    मानव।।


                            -3-

सबसे  बड़ा    समाज   है,   देश और    परिवार।

मात-पिता   इनसे    बड़े, मन में तनिक  विचार।।

मन  में   तनिक  विचार,प्रथम  इनकी  कर  सेवा।

निज   आचरण   सुधार,   नहीं  कोई  भी   मेवा ।।

'शुभम्' यही  सत  तीर्थ,   पिता-माता की मन से।

कर    ले    सेवा   नित्य,   बड़े  हैं ये ही    सबसे।।


                         -4-

सीमा  पर  निशिदिन   खड़े, अपने सीने   तान।

सेवा   करते   देश   की,   नित्य   बढ़ाते   मान।।

नित्य  बढ़ाते  मान, छोड़   परिजन प्रिय  भामा।

मिले  न सुख   के  साज,कमाते कम  ही नामा।

'शुभम्'  बड़ा   है  देश, नाम  ज्यों इनके    बीमा।

सेवक   रक्षक     वीर,  बचाते  अपनी    सीमा।।


                         -5-

करता  जो  सेवा  नहीं,   मात - पिता   की   पुत्र।

उसे  नहीं  है    विश्व में,    ठौर   लेश   भी   कुत्र।।

ठौर   लेश   भी  कुत्र, सदा  शापित वह   रहता।

नरक     भोगता    आप,  सदा वैतरणी   बहता।।

'शुभम्'    मूढ़   संतान,  दुसह दुख सहता मरता।

इसी लोक में स्वर्ग ,धरा  पर   सत सुत   करता।।


शुभमस्तु !


13.02.2025● 8.00प०मा०

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सत्ता [सोरठा]

 084/2025

               


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गया देश को भूल, सत्ता - मद में आदमी।

नाशी बुद्धि  समूल,कर्म-धर्म  करता नहीं।।

जन-सेवा  से  दूर, सत्ता के  भूखे सभी।

भावहीन  भरपूर,  चाहें  कंचन -कामिनी।।


गिरने   को   तैयार, सत्ता  पाने के    लिए।

करते       मरामार,   रेवड़ियाँ   भी बाँटते।।

किसे  न  मोहे  आज,सत्ता जैसी मोहनी।

छल-छद्मों के साज,करता पतन चरित्र का।।


कभी  न  चाहें त्याग,सत्ता को जो पा   गए।

खुले  हमारे  भाग, पत्थर लिखी लकीर है।।

कर्महीन  भी मूढ़,सत्ता  का  सुख    चाहते।

हो उलूक  आरूढ़, घर  अपने  भरते  सदा।।


रहे रात -दिन  चूस, सत्ता  -सुख के आम को।

काट रहे जन  मूस,जनता में बिल खोदकर।।

खट्टे   हैं   अंगूर,   मिली  नहीं सत्ता   जिसे।

करता क्या   मजबूर, गरियाता दिन-रात  है।।


सत्ता -सुख    इस  देश,वोटों का आधार   है।

बदल-बदल  रँग - वेश, घूम रहे जन देश में।।

जनता दुखी अपार,सता  रहे  सत्ता   मिली।

करते    मरामार,    नेता -   मंत्री   देश   के।।


खिलें सदा  ही  फूल, सत्ता  के  उद्यान   में।

जनता  सारी  भूल,भरते  आप तिजोरियाँ।।


शुभमस्तु!


13.02.2025●8.45आ०मा०

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बुधवार, 12 फ़रवरी 2025

चमन सारा बदलता [ नवगीत ]

 083/2025

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


माली बने कोई

चमन सारा बदलता।


डालियों  को  कर्तनी से 

छांटता है

क्यारियों में बाग को वह

बाँटता है

ढँग अपना अलग जो भी

चमन सारा बदलता।


एक  माली  डालियों को

नोंचता है

किंतु दूजा  भावियों को

सोचता है

रस न दे छोई

चमन सारा बदलता।


कोई उगाता फूल सुंदर

शूल कोई

एक गाता  रागिनी

करुणा भिगोई

प्यार के रँग में समोई

चमन सारा बदलता।


शुभमस्तु !


12.02.2025●3.30प०मा०

अक्ल के पीछे पड़े हैं [नवगीत]

 082/2025

          


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अक्ल के पीछे पड़े हैं

लट्ठ लेकर लोग।


बारहों महीने न जागे

एक दिन ही खास

जाग जाते लोग सारे

लग रहा उपहास

जून जब इक्कीस आई

कर रहे हैं योग।


दूध में पानी मिलाना

नित्य का ही काम

गबन चोरी अपहरण भी

हों सुबह से शाम

कुंभ में जाकर नहाए

धुल गए सब रोग।


आम का फल आम ही है

नीम का फल नीम

भूलते हैं कर्म का फल

कह रहे खुद  भीम

श्वान सूकर मानवों को

भोगना कृत भोग।


शुभमस्तु !


12.02.2025●12.45प०मा०

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कवि भी सफल किसान [ दोहा ]

 081/2025

     

[फसल,माटी,खेत,खलिहान,उन्हारी]

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                 सब में एक

अँगुली की शुभ लेखनी,शब्दों के बहु   बीज।

फसल लहलहाने लगी,मन ये लगा   पसीज।।

कवि भी एक किसान है,बोता फसल सुधार ।

गेंदा      गंदुम   झूमते,   देता    बिंब उतार।।


अक्षर-अक्षर    ब्रह्म  है,  माटी  वही    पवित्र।

करे सुगंधित  काव्य  को, जैसे मनुज  चरित्र।।

माटी  में   हो  बीज  का,पोषण उगता काव्य।

रचता है  कवि  भाव  में,लीन हुआ हो   भाव्य।।


मन के   विस्तृत खेत में ,  बोता शब्द किसान।

कवि का हल शुभ लेखनी, कविता उगे  महान।।

भावामृत से सींच कर,  पके   काव्य का  खेत।

हृदय करें रस पान जो,सफल सुभग  निज  हेत।।


कवि किसान मुद्रण सदा,बना एक खलिहान ।

कवि को केवल काव्य का,करता कर्म    उदान।।

कविता के खलिहान से, गठरी में  भर बीज।

कविजी के घर आ रहे, उर  के जल से  भीज।।


काव्य - उन्हारी फूलती,  फलती बारह    मास।

खरपतवारों  को  निरा,कवि-  किसान ले श्वास।।

रखते   हैं    दुर्भाव   जो,  देख उन्हारी  - खेत।

कवि  किसान  वे चोर हैं,जिनके कर  बस  रेत।।


                  एक में सब

उगी उन्हारी खेत में, हुई फसल     खलिहान।

धन्य-धन्य माटी सभी,कवि भी सफल किसान।।


शुभमस्तु !


12.02.2025●2.00आ०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...