085/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
-1-
सेवा से मेवा मिले, करके देखो आज।
मात-पिता को पूजिए, नित्य सजा कर साज।।
नित्य सजाकर साज, हृदय की तुष्टि प्रदाता।
प्रापक के सुख काज,गीत तन- कण- कण गाता।।
'शुभम्' पूज्यता पात्र, सदा नैया के खेवा।
नियमित समय निकाल, करें गुरुजन की सेवा।।
-2-
मानव का यह धर्म है, कर गुरुवर की भक्ति।
सेवा निज पितु-मात की,जन-जन से अनुरक्ति।।
जन-जन से अनुरक्ति, देश-सेवा जो करता।
मिले उसे हर शक्ति, नहीं असमय है मरता।।
'शुभम्' वहीं सौभाग्य,नहीं होता नर दानव।
सेवा है शुभ कर्म, बने रहना है मानव।।
-3-
सबसे बड़ा समाज है, देश और परिवार।
मात-पिता इनसे बड़े, मन में तनिक विचार।।
मन में तनिक विचार,प्रथम इनकी कर सेवा।
निज आचरण सुधार, नहीं कोई भी मेवा ।।
'शुभम्' यही सत तीर्थ, पिता-माता की मन से।
कर ले सेवा नित्य, बड़े हैं ये ही सबसे।।
-4-
सीमा पर निशिदिन खड़े, अपने सीने तान।
सेवा करते देश की, नित्य बढ़ाते मान।।
नित्य बढ़ाते मान, छोड़ परिजन प्रिय भामा।
मिले न सुख के साज,कमाते कम ही नामा।
'शुभम्' बड़ा है देश, नाम ज्यों इनके बीमा।
सेवक रक्षक वीर, बचाते अपनी सीमा।।
-5-
करता जो सेवा नहीं, मात - पिता की पुत्र।
उसे नहीं है विश्व में, ठौर लेश भी कुत्र।।
ठौर लेश भी कुत्र, सदा शापित वह रहता।
नरक भोगता आप, सदा वैतरणी बहता।।
'शुभम्' मूढ़ संतान, दुसह दुख सहता मरता।
इसी लोक में स्वर्ग ,धरा पर सत सुत करता।।
शुभमस्तु !
13.02.2025● 8.00प०मा०
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