शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

सत्ता [सोरठा]

 084/2025

               


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गया देश को भूल, सत्ता - मद में आदमी।

नाशी बुद्धि  समूल,कर्म-धर्म  करता नहीं।।

जन-सेवा  से  दूर, सत्ता के  भूखे सभी।

भावहीन  भरपूर,  चाहें  कंचन -कामिनी।।


गिरने   को   तैयार, सत्ता  पाने के    लिए।

करते       मरामार,   रेवड़ियाँ   भी बाँटते।।

किसे  न  मोहे  आज,सत्ता जैसी मोहनी।

छल-छद्मों के साज,करता पतन चरित्र का।।


कभी  न  चाहें त्याग,सत्ता को जो पा   गए।

खुले  हमारे  भाग, पत्थर लिखी लकीर है।।

कर्महीन  भी मूढ़,सत्ता  का  सुख    चाहते।

हो उलूक  आरूढ़, घर  अपने  भरते  सदा।।


रहे रात -दिन  चूस, सत्ता  -सुख के आम को।

काट रहे जन  मूस,जनता में बिल खोदकर।।

खट्टे   हैं   अंगूर,   मिली  नहीं सत्ता   जिसे।

करता क्या   मजबूर, गरियाता दिन-रात  है।।


सत्ता -सुख    इस  देश,वोटों का आधार   है।

बदल-बदल  रँग - वेश, घूम रहे जन देश में।।

जनता दुखी अपार,सता  रहे  सत्ता   मिली।

करते    मरामार,    नेता -   मंत्री   देश   के।।


खिलें सदा  ही  फूल, सत्ता  के  उद्यान   में।

जनता  सारी  भूल,भरते  आप तिजोरियाँ।।


शुभमस्तु!


13.02.2025●8.45आ०मा०

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