बुधवार, 12 फ़रवरी 2025

हार-जीत [ दोहा ]

 080/2025

               


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


हार-जीत  का  खेल   है, करके  देख  विचार।

मानव  जीवन आपका,अंतिम फल निस्सार।।

हार-जीत   होती  भले,  तदपि   न माने  हार।

शुभद  कर्म  मानव  करे,  होगा जीवन  पार।।


सभी  जानते  पाप का, फल  है  सदा अनिष्ट।

हार -जीत के खेल  को,मान  रहा क्यों   इष्ट।।

हार बिना क्या जीत का, सुफल मिले नर मूढ़!

खट्टे - मीठे   स्वाद  के,  तरु  पर  हो आरूढ़।।


कभी हार  भी  जीत का, देती  शुभ परिणाम।

मात -पिता नित पूजिए,सदा सफल सब काम।।

गुरु -  जननी  से  हार भी,कभी न होती   हार।

अहित  नहीं  उनसे  मिले, करके देख  विचार।।


गुरु चरणों  में नित्य ही,करता  शिष्य   प्रणाम।

हार-जीत  उसके   लिए,  होती नित अभिराम।।

जीवन  में  जिसने कभी,चखा हार का   स्वाद।

वही जानता  जीत   का, श्रवण गूँजता   नाद।।


हार  जगाती    नींद  से, तज  दे  मूढ़  प्रमाद।

जीत  जागरण  शंख   है, कर्णकुहर अनुनाद।।

हार    चेतना-मंत्र      है,   एक सफलता-द्वार। 

जीत   सुलाए   नींद   में, डाल  गले में   हार।।


हार-जीत कटु  मधुर  हैं,चखना ही कटु-मिष्ट।

जीवन   में  अनिवार्य  भी  , माने   नहीं अनिष्ट।।


शुभमस्तु !


11.02.2025●8.00प०मा०

                   ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...