गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

एक रंग यह भी जीवन का [नवगीत]

 125/2025

    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


एक  रंग यह भी जीवन का

बड़े भाग्य से हमको मिलता।


झूल पालना घुटनों रेंगा

सरपट दो पैरों पर दौड़ा

लल्ला मुन्ना भी कहलाया

अम्मा और पिता का मौड़ा

अधनंगा नंगा भी रहकर

फूल सुहाना ऐसा खिलता।


बालापन से जब किशोरता

आई तो कुछ और बात थी

यौवन का कब बना बुढापा

क्या यह कोई सघन रात थी

किंतु नहीं अफ़सोस आज भी

सबको नहीं  बुढापा मिलता।


चतुर्युगी सबको कब मिलती

सतयुग द्वापर कलयुग त्रेता

किसने कहा बुढापा बेढब

यही समय तो सबका जेता

यौवन के सब फूल झरे हैं

फटे हुए को ही नर सिलता।


शुभमस्तु!


27.02.2025●1.45प०मा०

                 ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...