125/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
एक रंग यह भी जीवन का
बड़े भाग्य से हमको मिलता।
झूल पालना घुटनों रेंगा
सरपट दो पैरों पर दौड़ा
लल्ला मुन्ना भी कहलाया
अम्मा और पिता का मौड़ा
अधनंगा नंगा भी रहकर
फूल सुहाना ऐसा खिलता।
बालापन से जब किशोरता
आई तो कुछ और बात थी
यौवन का कब बना बुढापा
क्या यह कोई सघन रात थी
किंतु नहीं अफ़सोस आज भी
सबको नहीं बुढापा मिलता।
चतुर्युगी सबको कब मिलती
सतयुग द्वापर कलयुग त्रेता
किसने कहा बुढापा बेढब
यही समय तो सबका जेता
यौवन के सब फूल झरे हैं
फटे हुए को ही नर सिलता।
शुभमस्तु!
27.02.2025●1.45प०मा०
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