079/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
आज से
कल ही भला था।
नित्य के झंझट झमेले
ऊब भरते क्या करें हम
घटते नहीं ये वसन मैले
होते नहीं क्यों शमन बेदम
सूर्य जो पूरब उगा था
साँझ संध्या में ढला था।
आगे पड़ा मैदान निर्जन
थक रहे क्यों पैर इतने
और कितनी दूर चलना
दिख रहे हैं और फ़ितने
मंजिलें दिखती नहीं हैं
रात-दिन मैं तो चला था।
दर्द देना जिंदगी में
आदमी का लक्ष्य लगता
दीखते सब ही बिलखते
सुख नहीं भ्रम से फटकता
अमराइयों में झूलते थे
रुदन भी लगता कला था।
शुभमस्तु !
11.02.2025●1.00 प०मा०
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