066/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
माता - पिता
घर गृहस्थी के प्रति
कर्तव्यों का पुण्य छोड़
बाबा बन गए,
पाप ही कमाए!
इसलिए सर्वप्रथम
कुंभ में गोते लगाए!
सबसे भारी जो था
देह-कुंभ का भार!
खाली कर दिया
संगम में उतार।
'गतानुगतिको लोक:'
तो सोचना क्या!
विचारना क्या !
बस भेड़ के पीछे
चला चले रेवड़,
सुंदर-सा नामकरण
कर दिया 'धर्म'!
नहाना भी पुण्य है !
मेढक मछली की तरह,
पसीना बहाना
श्रमजन्य है
कर्मठता की वजह,
पर उसे करना
कौन चाहे?
अकर्मण्यता
पूज्य है इस देश में,
स्वेदसिक्त धारी को
अवकाश ही कहाँ है!
स्वेद ही उसकी
गंगा यमुना सरस्वती हैं
वही है उसका
प्रयागराज संगम।
कोरे उपदेशकों के
गले में नोटों
स्वर्ण जंजीरों की माल!
करता है जो कर्म
वही विह्वल बेहाल,
आदमी को ठगने भर की
आदमी की चाल।
कानों को तोपे हुए
सुन रहे श्रोता
उधर बज रहे जो गाल।
जापान नहीं बन सकता
ये देश,
क्योंकि यहाँ
पूजा ही कर्म है,
कर्म को पूजा कहना तो
मात्र खोखला मुहावरा है,
आदमी सीमेतर बेशर्म है।
शुभमस्तु !
06.02.2025 ● 12.45 प०मा०
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