065/2025
©शब्दकार
डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सागर का मन
भरियाने लगा है,
आदमियों का कुंभ
रीतने लगा है,
फिर से
भर जाने के लिए।
जो भरता है
वही रीतता है
यही प्रक्रिया है,
जन्म-मरण की तरह।
न कभी
पूरा भरा
न कभी
पूरा रिक्त
ही हुआ,
औंधाया नहीं जाता।
सबके हिस्से में हैं
पाप-पुण्य
निष्पाप एक भी नहीं,
रीतने-भरने की
प्रक्रिया भी खूब है!
सब चाहते हैं
अमृत की कुछ बूँद
पर कर्मों पर दृष्टि नहीं,
अनजाने ही नहीं
जानकर भी
पाप कुंभ
भरे जा रहे हैं।
लकीर के फ़कीर
अथवा भेड़चाल
कुछ भी कहें,
सत्य सदैव कड़ुआ है।
सत्य जो कहे
वही नास्तिक
वही अनास्थावान,
मन नहीं चंगा
तो गंगा में भी
नहीं कहीं गंगा।
शुभमस्तु !
06.02.2025●12.15 प०मा०
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