रविवार, 9 फ़रवरी 2025

मैं व्यंग्य हूँ [ व्यंग्य]


069/2025 

 

 ©व्यंग्यकार

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 कोई मुझे कितना ही टेढ़ा कहे,पर मैं अपने चाल -ढाल में सीधा हूँ।हाँ,इतना स्प्ष्ट है कि मैं मुंहफट हूँ।सच बात कहने में किसी से डरता नहीं, किसी के दबाव में नहीं रहता। जो भी कहता हूँ, बेबाक ही कहता हूँ। इसी बात पर लोग मेरे ऊपर टेढ़ा चलने का दोषारोपण करते हैं।ये गलत है। आज मैं अपनी बात आप ही बताने चला हूँ। अब तक मेरे कर्ता को आप पचास वर्षों से औरों की सड़क पर औरों को चलवाते हुए देखते रहे। आज आप मुझे मेरी अपनी ही चाल में चलायमान,गतिमान और प्रगतिमान देखेंगे। 

 मेरा उद्देश्य कभी किसी की हँसी उड़ाना अथवा अपमानित करना कदापि नहीं होता। बस यथार्थ को सबके सामने लाना होता है। कविता में जहाँ आदर्श पर मखमली दुशाला ओढ़ा दिया जाता है,वहीं मैं उस पर कोई आवरण नहीं डालता।आवरण के बिना तो आदमी को भी असभ्य करार दिया जाता है,यह तो निश्छल अभिव्यक्ति है। मैं कोई शृंगार की साड़ी और आभूषणों में लिपटी हुई नायिका नहीं, कोई कविता नहीं ;खुला हुआ संदेश हूँ। अब किसी को भला लगे या बुरा;मैं इसकी कभी कोई चिंता नहीं करता। अब मेरे सामने चाहे नेता हो या अभिनेता, मंत्री हो या संतरी, बहीखाता हो या जंत्री,अधिकारी हो या कर्मचारी, मिलावटखोर हो या गबनी,झाड़ू हो या छलनी सबकी सही -सही बात कहनी।अब इसे आप मेरी प्रकृति कहें या दोष।जब कहता हूँ एक- एक सच बात, तो खो देता हूँ होश। इतना बेहोश भी नहीं कि किसी मधुपाई की तरह औंधे मुंह नाले की शोभा बढाऊँ। मैं अपनी सहज और स्वाभाविक राह से कभी इधर -उधर नहीं जाऊँ।इसी बात के कारण तो आलोचकों का बुरा कहलाऊँ।

 मैं कोमलांगिनी कविता की कमनीयता की तरह कोमल नहीं हूँ। अलंकारों से अलंकृत ,रसों की झंकार से झंकृत कोई नृत्यांगना नहीं, लंगोटधारी नट हूँ।अपनी कथनी और करनी में उद्भट हूँ। बातों के बतासे नहीं खिलाता और न ही रस के रसोगुल्ले ही चटाता। मैं चटपटी चटनी के संग कुछ तीखे कुछ रूखे भल्ले ही छकाता।

 मैं थोड़ा खुरदरा अवश्य हूँ। अब मेरा खुरदरापन किसी को चुभे तो चुभे।किसी को फबे या न फबे। जिसकी कमजोर नस पर मेरा हाथ पड़ जायेगा तो वह हँसेगा या खुश तो नहीं होगा, बिलबिलायेगा , अपना रोष बिखरायेगा। पर मुझे अपनी प्रकृति के विरुद्ध काम नहीं करना। मैं किसी नेता का चमचा तो नहीं हूँ,जो किसी की चमचेगीरी करूँ! मक्खनबाजी करूँ अथवा तेल मालिश करूँ? मैं तो अष्टावक्र की तरह हर अंग से वक्र हूँ। कोई ये भी न समझे कि मैं किसी के विरुद्ध रचता कोई कुचक्र हूँ। दूध के दही से बना हुआ खट्टा-तीखा तक्र हूँ। एक आईना हूँ देश और समाज का, व्यक्ति का उसकी शक्ति या आसक्ति का। साहित्य का खुला हुआ दर्पण। जहाँ से लिया ,उसी को अर्पण।जितना ही करोगे इस च्युंगम का चर्वण ,उतना ही रस मिलेगा,करेगा नहीं गड़बड़। 

 मैं वही हूँ,जिसे देखने सुनने से आप डरते हैं।झूठे रस भरे काव्य और गुलाब और जूही की सुगंध से सँवरते हैं। वस्तुतः आप चापलूसी को पसंद करते हैं।कंचन,कामिनि, कुसुम और कलिका ही आपको भले जँचते हैं।हम तो वही शूल हैं जो शूल से शूल का इलाज करते हैं।मैं झूठ को सच बनाकर नहीं दिखाता।मैं सच को ही सच का आईना दिखलाता। मैं न तो बिहारी घनानंद का शृंगार हूँ ,न पंत का प्रकृतिगत उद्गार। निराला की तरह प्रगतिवाद का शंख फूँकता हूँ,किसी कायर कवि की कविता नहीं धूंकता हूँ। सूर तुलसी की तरह भक्ति से दूर हूँ, अपनी नग्न कथनी की कहन में चूर हूँ। न कामायनी की कमनीयता है ,न आँसू की बूँद हूँ,न गोपियों का विलाप हूँ और न भक्त कवि सूर हूँ।बाबा नागार्जुन का आशीर्वाद मुझे सदा से प्राप्त है, उनका एक-एक अक्षर मुझे मंत्र आप्त है। मैं 'व्यंग्य' हूँ , अनुमन्य हूँ।कोई कहे जंगली ,मैं स्वयं कहूँ वन्य हूँ ।आप भले न थपथपाओ मेरी पीठ ,मैं मेरे चहेतों में धन्य हूँ।

 शुभमस्तु !

 09.02.2025●12.00मध्याह्न 

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