सोमवार, 10 फ़रवरी 2025

नीचे है बस गोबर [ नवगीत ]

 074/2025

            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मखमल का

है पड़ा दुशाला

नीचे है बस गोबर।


खेत धर्म का

फसलें पकतीं

पीछे चलता रेवर,

भेड़ों के

पीछे सब भेड़ें

चल दिखलातीं तेवर,

खोली मूठ

हाथ में आया

बदबू देता गोबर।


इनमें उनमें

भेद न कोई

पढ़े -लिखे या मूढ़,

एक सड़क पर 

सब ही दौड़े

बनी हुई जो रूढ़,

खूँटी पर लटकी

धी जन-जन की

चखते हैं सब गोबर।


जो रोके- टोके

जन कोई

वही धर्म से दूर,

वही विधर्मी

नहीं देश का

उचित वही जो सूर,

खुला भेद

इस उस का सारा

ढँकते फिर से गोबर।


शुभमस्तु !


10.02.2025●2.30प०मा०

                ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...