093/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
आशाओं के फूल
खिलने को
दरमियाँ भी चाहिए।
भटकते ही हैं
हम कभी न कभी
मंजिल नहीं मिलती
मुरझा भी जाती हैं
अधखिली कलियाँ
हर कली नहीं खिलती
कली-कली को
जो जगा पाए
सुरभियाँ भी चाहिए।
कभी तेज
धूप है
कभी झिंझोड़ती हवाएँ
उड़ती हुई
धूल कभी
कहर ढहाती-सी फिजाएँ
सोए हुओं को
जगाने के लिए
मुर्गे -मुर्गियाँ भी चाहिए।
चला चल तू
राह में अपनी
रुकना ही नहीं है
क्या पता
दो ही कदम पर
मंजिल भी यहीं है
चाहें बहार वर्षा की
दहकती- चहकती
गर्मियाँ भी चाहिए।
शुभमस्तु !
17.02.2025●11.45 आ०मा०
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