103/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
त्यों जीवन में छंद,लय रस गति ज्यों काव्य में।
उनके भाव अमंद, सब ही होने चाहिए।।
कविता के हर छंद, भाव सदा अनिवार्य है।
उड़ता गगन परंद, वैसे हृदयाकाश में।।
कविता हो रसदार, छंद बद्ध या मुक्त हो।
बिंब करे साकार, भाव राशि उत्ताल कर।।
सबका अलग महत्त्व, वर्ण और मात्रा सभी।
नष्ट न अपना सत्त्व, छंद करे चमकार यों।।
विविध रंग के छंद, भाषा विविध प्रकार की।
तीव्र चलें कुछ मंद, लघुतम और विशाल हैं।।
सबकी अलग पसंद, सरितावत कविता बहे।
कभी बहे नव छंद,कभी परिंदों -सी उड़े।।
बहुत यहाँ पर लोग, लिप्त सदा छल -छंद में।
प्रसरित करते रोग, उत्पीड़न दें अन्य को।।
प्रसरित हो मकरंद,जीवन में सुर ताल से।
सुघर मुखर हो छंद,तब ही जीवन काव्य का।।
वीर सवैया छंद, दोहा रोला सोरठा।
सबकी पृथक पसंद,क्रीड़ा तिंना चंचला।।
छंद राज्य का देश, एक अलग संसार है।
सुघर-सुघर धर वेश, काव्य -धरा में सोहता।।
शुभमस्तु !
19.02.2025●9.30 प०मा०
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