115/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
आदिवासी रहन ही तो
आ रही है।
आदमी वह सभ्य उतना
नग्न जितना
खुले कंधे पीठ जाँघें
या कि घुटना
मदहोशियत ऐसी यहाँ पर
छा रही है।
आधे अधूरे का दिखावा
नव्यता है
ढोर वत नंगा बदन
नव सभ्यता है
अंग की भोंड़ी नुमाइश
भा रही है।
लग रहा इतिहास फिर
वह आ रहा है
आदमी में पशुपना
नित छा रहा है
खड़े खाना या विसर्जन
ला रही है।
शुभमस्तु !
24.02.2025●2.30 प०मा०
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें