बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

नाचना तो नग्न ही है! [ नवगीत ]

 113/2025

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


द्वार पर पर्दे सजा लो

तुम भले ही

नाचना तो  नग्न ही है।


दिखला सको उतना

दिखा लो देह को

आँख का पानी मरा

क्या ही होगा मेह को

मन में प्रदर्शन की लगी

चाहत बड़ी

मनुज नित मग्न ही है।


फटे मैले वस्त्र हैं

शोभा हमारी

आधुनिकता चाहती

बलि भी तुम्हारी

कौन रोके 

या कि टोके

सभ्यता तो भग्न ही है।


आदमी लगते नहीं हो

आदमी हो?

आदमियत भी आदमी को

लाजमी हो?

गाय भैंसें स्वान सूकर

आदमी संलग्न ही हैं।


शुभमस्तु !


24.02.2025● 12.15प०मा०

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