मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

मोर लड़खड़ाते हैं [ नवगीत ]

 096/2025

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


छतों की मुँडेरों पर

मोर लड़खड़ाते हैं।


'पहले मैं'

'पहले मैं'

यही एक शोर है

अंतर में 

आदमी के 

विद्यमान चोर है

कबूतर जो

छोड़े थे

यहाँ फड़फड़ाते हैं।


पुण्य बीच

पाप उगा

लाशों का ढेर है

भौचक्का 

प्रशासन है

बड़ा  अंधेर है

पिलाते जो उपदेश

सभी हड़बड़ाते हैं।


शांति के

पुजारी नर-नारी

हुए क्लीव हैं

धर्म गया

भाड़ में 

फूटते नसीब हैं

पंख नुची 

मछली - से

गोती तड़पड़ाते हैं।


शुभमस्तु !


18.02.2025●1.45 प०मा०

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