88/2024
[मन्मथ,मदन,मयूर,मलय,मादक]
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सब में एक
मन्मथ ने मन को मथा,मानस में हिलकोर।
मतवाली तन को बना,करती काम विभोर।।
कुसुमाकर कमनीय है,जागा मन्मथ जीव।
कुहू-कुहू कोकिल करे, विरहिन चाहे पीव।।
मदन कहाँ मद के बिना,यही सृष्टि - शृंगार।
दृश्य जगत के सृजन का, बना मूल आधार।।
कान्हा मोहन मदन तुम, योगेश्वर घनश्याम।
राधाप्रिय गोपाल हो, ब्रज में श्रेष्ठ ललाम।।
मन - मयूर मम नाचता,जब आए मधुमास।
कली-कली मुकुलित हुई,कवि का शुभ अनुप्रास।।
सुनकर गर्जन मेघ की, बोले बाग मयूर।
मन में उठे हिलोर - सी, हृदय हुलस भरपूर।।
मलय - गंध मनभावती, पावन सुरभि हिलोर।
जहाँ -जहाँ जाती जिधर, भर आनंद विभोर।।
मलय-विटप का एक गुण,दे शीतलता दान।
सद सुगंध भी बाँटता, सदगुण भरा निधान।।
मादक मधु से प्रेम का, अलिदल है पर्याय।
करे प्रतीक्षा रात -दिन,सुरभि बिना निरुपाय।।
मादक मद रस चू रहा,गजगामिनि पद चाल।
लगता अवनी - झील में, है उन्मत्त मराल।।
एक में सब
मादक मलय समीर से,नाचे मदन मयूर।
मन्मथ ले अंगड़ाइयाँ,भर उमंग भरपूर।।
शुभमस्तु !
06.03.2024 ●7.15आ०मा०
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