82/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
रीझ गया है कोकिल का मन।
देख लिया कुसुमाकर - दर्पन।।
कुहू - कुहू की टेर लगाती।
विरहिन के उर पीर जगाती।।
बहती है बयार क्यों सन- सन।
रीझ गया है कोकिल का मन।।
भौंरे मस्त झूमते घूमें।
मधु से भरे सुमन को चूमें।।
पीतांबर में सजा श्याम तन।
रीझ गया है कोकिल का मन।।
बौराए रसाल मतवाले।
खोल रहे महुआ रस - ताले।।
नव सुगंध से सरसाया वन।
रीझ गया है कोकिल का मन।।
पाटल अधर लाल मुस्काते।
अलि तितली दल पास बुलाते।।
मदमाता है तन- मन जन - जन।
रीझ गया है कोकिल का मन।।
'शुभम्' कंचुकी कस - कस जाए।
दृग - विनता बाला शरमाए।।
अर्पित करने को निज तन - धन।
रीझ गया है कोकिल का मन।।
शुभमस्तु !
04.03.2024●1.45प०मा०
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें