93/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
पलकों में तुम
छिपे हुए हो
नहीं निकलने पाओ।
जब से देखा
तुमको मोहन
चैन नहीं मैं पाती।
अंतरतम में
लुका छिपा कर
मन ही मन शरमाती।।
मुझे अँदेशा
भारी प्रियतम
निकल न बाहर जाओ।
एक झलक ही
देखा मैंने
तब से द्वार खड़ी मैं।
गृह कपाट जब
खटके किंचित
खिड़की ओट अड़ी मैं।।
आकर छू लो
तन-मन मेरा
प्रणय - मेघ बरसाओ।
तुम्हें चाहकर
शेष न कोई
चाह एक भी मन में।
नख से शिख तक
तुम्हीं समाए
तिरछे मेरे तन में।।
गीत एक ही
गूँज रहा है
मेरे संग मिल गाओ।
शुभमस्तु !
12.03.2024●10.00आ०मा०
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