158/2024
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
काँटे केवल पेड़ पर ही नहीं होते।यदि गुलाब के पौधे जैसे काँटे हों तो सहन भी किए जाएं,किंतु जिनका उद्देश्य केवल चुभना और केवल चुभना ही हो तो वे गुदगुदाएंगे नहीं। चुभेंगे ही।आज कवि और कवयित्रियाँ धुआँदार धुँआधार लेखन कर रहे हैं।हिंदी में काव्य और गद्य आदि लेखन की बाढ़ नहीं सुनामी आई हुई है और लोग हैं कि रातों रात कालिदास बन जाने की प्रतियोगिता में दौड़ लगा रहे हैं।कुछ कछुए/कछुइयाँ खरगोशों से आगे निकल चुके हैं।और बेचारे खरगोश नीम के पेड़ की घनी छाँव में बैठे इत्मिन्नान से आराम फ़रमा रहे हैं कि उन्हें कोई जलदी नहीं। पहुंच ही जाएंगे, अभी कोई देर नहीं हुई है। किंतु वे देखते हैं कि कुछ कछुए और कुछ कछुइयाँ उनसे भी बहुत पहले गले में माला और कंधों पर शॉल सुशोभित किए हुए मुस्करा रहे हैं।
तथाकथित खरगोशों के द्वारा ऐसा कुछ धमाल किया जा रहा है कि ऐसा लिखो कि किसी के पल्ले न पड़े।सामने वाला शब्दकोष लेकर बैठे तब तक साहित्य की गाड़ी कहाँ से कहाँ जा पहुँचेगी। यहाँ कोई किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। बस सबको पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ जाना चाहता है।इसलिए दुरूह और अस्पष्ट लिखना ही वह सर्वश्रेष्ठ साहित्य का मानक मानता है।कुछ लोग तो स्वयं शब्दकोश लेकर ही बैठते हैं ,और उसमें से क्लिष्ट से क्लिष्ट शब्द खोजकर शब्दों के सीमेंट से चिपका देते हैं।उन्हें किसी पाठक से कोई मतलब नहीं है।उनकी दृष्टि में यही सर्वश्रेष्ठ साहित्य है। आज हँसगुल्लों के सम्मेलन कवि सम्मेलन के नाम से ख्याति प्राप्त करते हैं अथवा क्लिष्ट काव्य सृजेताओं के काव्य उच्च कोटि के साहित्य का सम्मान प्राप्त करते हैं।
विचारणीय है कि जब किसी रचना का भाव ही किसी पाठक/श्रोता की पहुँच से बाहर हो ,तो उसका औचित्य ही क्या है।ऐसे ही साहित्य को आजकल वाहवाही भी खूब मिलती है और मिल भी रही है।कोई भी श्रोता से पूछने तो नहीं जा रहा है कि आप क्या समझे? ताली बजाने या वाह ! वाह!! करने में जाता भी क्या है ! यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो आपको निम्न स्तरीय श्रोता समझ लिए जाने का खतरा है।काँटों को फूल समझिए और सामने वाले को सराहिए। इससे आप प्रबुद्ध वर्ग में आगणित किए जाएँगे।
कंटक प्रेमी साहित्यकारों का प्रायः यही तर्क रहता है कि उनका साहित्य किसी आम ऐरे गैर नत्थू ख़ैरे के लिए नहीं है। बल्कि वह केवल प्रबुद्ध वर्ग के लिए है।यदि आप भी ऐसे ही प्रबुद्घ वर्ग में शामिल होना चाहते हों अथवा पहले से ही उसके समर्थक हों, तो फिर कहना ही क्या ?क्योंकि प्रबुद्ध होना किसी शॉल माला से कम नही।कोई यों ही थोड़े बन जाता है प्रबुद्ध ? किसी भी समाज में मूर्खों की तरह 'प्रबुद्धों' की संख्या भी अँगुलियों के पोरुओं पर गिनने योग्य ही होती है।अर्थात ऐसे लोग कम ही होते हैं। यदि आप सामान्य ही बने रह गए तो फिर आपका महत्त्व ही क्या रहा ! इसलिए कुछ खास बने रहने में ही आप साहित्यिक वर्ग के सितारे बनकर चमक सकते हैं।
फूलों से काँटों की ओर प्रस्थान की साहित्यिक यात्रा का गंतव्य अनिश्चित है।बस आप नेताओं की तरह अपने समर्थक पैदा कर लीजिए।आज का युग बहुमत का है। बहुमत भले ही मूर्खों का हो ,चलेगा। बहुमत अवश्य होना चाहिए। किन्तु इस कंटक यात्रा में आप अकेले नहीं चल सकते।अकेला सो पिछेला।और पीछे भला कौन रहना चाहता है ! यह 'प्रबुद्धीय' दौड़ ही ऐसी है कि सबको अपने को 'स्पेशल' बनाकर उजाकर करना है।सामान्य से इतर होना ही इस दौड़ का लक्ष्य है।अरे भाई !आप कोई भेड़ के रेवड़ का हिस्सा थोड़े हैं,जो भेड़चाल से चलें ! आप तो उससे सर्वथा भिन्न एक 'विशिष्ट' शल्य पथ के राही हैं।
शुभमस्तु !
29.03.2024●10.15 आ०मा०
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