मंगलवार, 5 मार्च 2024

बासी हवा महकने लगती [ गीत ]

 87/2024

  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


खिड़की खुलती

जब अतीत की

बासी हवा महकने लगती।


कंचा-गोली

आँख मिचौली

कागज की वह नाव चली।

ग्रामोफोन 

रेडियो बजते

यहाँ वहाँ पर गली- गली।।


ऊँची कूद

कब्बड्डी होती

चौपालों पर महफ़िल सजती।


लालटेन की

लाल रोशनी

घर भर में उजियार भरे।

पेट्रोमेक्स 

ब्याह -शादी में

रातों का अँधियार हरे।।


घर आँगन में 

दालानों  में 

केरोसिन की कुप्पी जलती।


वे भी क्या थे

दिन जो बीते

सुख से भरे अभाव घने।

गेहूँ जौ की 

बालें भुजतीं

स्वाद  भरे थे  हरे  चने।।


'शुभम्' खेलते

कीचड़ होली

देवर के तिय गाल मसलती।


शुभमस्तु !


05.03.2024●7.45 आ०मा०

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