550/2023
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●© शब्दकार
● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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-1-
मानव धर्म अपार है, जिसका ओर न छोर।
कदम-कदम पर माँगता, सत्य कर्म पुरजोर।।
सत्य कर्म पुरजोर, निभाना उसे न आता।
मात्र झूठ का शोर, जीभ अपनी ललचाता।।
'शुभम्' जगत में आज, भरे हैं अगणित दानव।
अँगुली पर गणनीय, बचे हैं थोड़े मानव।।
-2-
माला मानव - धर्म की, जपता है संसार।
हिंसारत मानव यहाँ , हिंसा ही आचार।।
हिंसा ही आचार, युद्ध के बने अखाड़े।
बहता रक्त अपार, मनुज मानव के आड़े।।
रूसी और हमास, अहिंसा पर दे ताला।
छीन रहे सुख चैन, मुंड की डाले माला।।
-3-
बातें मानव - धर्म की, फैशन वाली बात।
करता है ये आदमी, तन -मन से अपघात।।
तन - मन से अपघात,रहे सुख से क्यों कोई।
भाव यही है मूल, बाड़ शूलों की बोई।।
'शुभम्' न दिन को शांति,नहीं हैं सुखमय रातें।
धूम - धूसरित कांति,चहकती मुख की बातें।।
-4-
मानव होना देह से, एक अलग ही तथ्य।
मानव - धर्म न हो जहाँ, मर जाता है सत्य।।
मर जाता है सत्य, ढोर का प्रतियोगी है।
खाता भक्ष्य - अभक्ष्य , मात्र रसना भोगी है।।
'शुभम्' कर्म का बोध ,नहीं बनता नर दानव।
हिंसा जन की शोध, वृथा कहना फिर मानव।।
-5-
आओ मानव - धर्म का, कर लें कुछ उपचार।
दानव का पथ त्यागकर, बना सत्य आधार।।
बना सत्य आधार, धर्म मानव का जानें।
करनी कर साकार, मनुज को मानव मानें।।
'शुभम्' पढ़ें सद्ग्रंथ, राम का पथ अपनाओ।
मात्र यही है पंथ, मिलें हम उर से आओ।।
●शुभमस्तु !
22.12.2023● 10.00आ०मा०
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