599/2023
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●© शब्दकार
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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राम - तरंगों
से आवेशित
मेरे तन, मन, भाव।
कहाँ नहीं हैं
राम देह में
मिला न कोई ठौर।
पावनता किस
छोर नहीं है
ऐसा लगे न और।।
रात- दिवस हो
संध्या - प्रातः
एक राम का चाव।
मेरे मन में
कहाँ नहीं वे
कविता का हर शब्द।
हुआ राममय
निकल न जाएँ
होता शुभम् निशब्द।।
'शुभम् राम ही
साँचा' लिखकर
जागा परम् लगाव।
मात शारदे
'भगवत' करता
विनती बार हजार।
राम बसें मन-
मंदिर मेरे
तरणी बना सवार।।
आज 'शुभम्' ने
सब कुछ पाया
बतलाते उर - हाव।
● शुभमस्तु !
29.12.2023●2.30प०मा०
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