515/2023
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●© शब्दकार
● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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-1-
मानव में यदि हो नहीं, मानवता का अंश।
हाड़ - माँस की देह ये,मात्र खेह का वंश।।
मात्र खेह का वंश, अरे सत संगति कर ले।
जीवन करता ध्वंश,ज्ञान की आभा भर ले।
'शुभम्' कुमति को त्याग,बने मत हिंसक दानव।
जागेंगे तव भाग, सु-संगति कर ले मानव।।
-2-
अपने को जाना नहीं, करता फिरता ढोंग।
वेश बदलता देह के,रहा पोंग का पोंग।।
रहा पोंग का पोंग, नहीं सत संगति करता।
नाप रहा है व्योम, धरा पर पाँव न धरता।
'शुभम्' जाग कर देख,खुली आँखों से सपने।
पारस को छू लौह, कनक बनता घर अपने।।
-3-
अपना -अपना पेट तो,भर लेता हर श्वान।
धर मानव की देह को ,बनें नहीं शैतान।।
बनें नहीं शैतान, करें सत संगति मन से।
नित्य ईश- गुणगान ,बने मानव तू तन से।।
'शुभम्' सुधा के हेतु, पड़ेगा तुमको तपना।
फहराए तव केतु, लक्ष्य पूरा कर अपना।।
-4-
मेरा - मेरा कर जिया, किया नहीं उपकार।
सत संगति से दूर तू, मिली सदा ही हार।।
मिली सदा ही हार,कुसांगति में रत रहता।
हो न सका उद्धार,मात्र शव-सा नित बहता।।
'शुभम्' न तेरी देह, नहीं जगती में तेरा ।
बने देह का खेह , रटे मत मेरा - मेरा।।
-5-
जैसी संगति कीजिए, वैसा हो आदान।
द्यूती की संगति करे, द्यूती लें सब मान।।
द्यूती लें सब मान, कुसंगति तन- मन खाए।
धन की होती हानि, शीश धुन - धुन पछताए।।
हो जैसे का साथ, 'शुभम्' मति बनती वैसी।
झुका न दुर्मति माथ, चढ़ेगा सीढ़ी जैसी।।
●शुभमस्तु !
01.12.2023● 10.45आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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