516/2023
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● ©व्यंग्यकार
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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चाहे गिलहरी और कौवे की साझा खेती करने की कहानी हो या लोमड़ी की चालाकी से जंगलाधिपति शेर जी को कुएँ में कुदवाने की।चाहे खरगोश और कछुए की दौड़ प्रतियोगिता हो अथवा चिरैया और चिरौटा की खीर पकाकर चिरौटे की चालाकी कथा हो।सभी पशु -पक्षियों की पुरानी कहानियों में कहीं भी वे नहीं हैं। सभी जगहों पर यदि कोई है तो वह आदमी ही है। आदमजात के नर -नारी ही पशु -पक्षियों की भूमिका में प्रकट होते हैं।
इस आदमी ने पशु ,पक्षियों, कीड़े मकोड़ों ,पेड़ पौधों की स्व प्रजातीय भूमिका में अपने आदमीपन की सारी चालाकियों, बुद्धिमताओं,मक्कारियों,सचारित्रताओं, दुश्चरित्रों,ठगपांतियों का असली रूप उजागर करके रख दिया है।कहने मात्र के लिए वे पशु-पक्षी हैं, किन्तु वास्तव में उनके चरित्र के पीछे आदमी ही बोल रहा है।जो भी रस या विष है ;वही तो घोल रहा है। विविध कहानियों के चरित्रों में उसका अपना मानवीकरण है। वहाँ आदमी के भावों और विचारों का कहानीकरण है।वे चाहे पालतू हों या जंगली ; सर्वत्र पात्रों के द्वारा मनुष्य का ही वरण है।पशु या पक्षी का तो मात्र आवरण है।
जहाँ -जहाँ पड़े हैं आदमी के चरण ,वहाँ-वहाँ वे रह गए हैं मात्र उद्धरण।मानवीय संवाद,भाषा- शैली ,चरित्र सब कुछ मनुष्य का,मनुष्यकृत। केवल कथानक में वे पशु -पक्षी।स्थान या काल क्रम का कोई भी हो , क्या अंतर पड़ता है ? क्योंकि सब कुछ मनुष्यकृत, मनुष्य के लिए,मनुष्य बोध हित में पशु -पक्षीकरण कर दिया गया है। जिनका सहारा लिया गया है ,उनका अपना कुछ भी नहीं है। पशु के खोल में भी आदमी और पक्षी के खोल में भी आदमी ही घुसा पड़ा है।जैसे बारात में घोड़े के पुतले में आदमी नाच रहा हो।
अपने सर्वजेता होने का प्रमाण आदमी सब जगह दे रहा है।चाहे पहाड़ को काटकर टनल बनाना हो या बड़े - बड़े हाईवे,ऊँची -ऊँची अट्टालिकाएँ और महाभवनों का निर्माण,जंगल को सघन बस्तियों में बदलने का काम, धरती को फोड़कर पाताल से पानी निकाल लेने का इंतजाम, सब इस आदमी का ही किया -धरा है।लेकिन जब- जब प्राकृतिक आपदाओं से वह घिरा है मरा है ,तब- तब भगवान का ही माँगता रहा आसरा है।प्रकृति से छेड़छाड़ का ख़ामियाजा भी उसने खूब ही भोगा है।तब धर्म और षट्कर्म का ओढ़ लिया चोगा है।ये आदमी कब किधर मुड़ जाएगा ,कुछ कहा नहीं जा सकता।
वे कौन से वानर थे ,जो आज आदमी के चोले में भोले-भाले बने घूम रहे हैं और कौवा -गिलहरी , तोता- मैना ,मगरमच्छ- बंदर, शेर-लोमड़ी, खरगोश -कछुआ आदि की कहानियों से पंचतंत्र की रचना कर पोथियाँ भर रहे हैं। लेकिन ये जो नित्य प्रति छतों ,पेड़ों ,गलियों,मोहल्लों, बाजारों, मंदिरों आदि में उछलते - कूदते धमा - चौकड़ी मचाते,कपड़े ,जूते ,चप्पल ,आँखों से चश्मे ,ठेलों से फल आदि की छीना - झपटी करते हुए देखे जाते हैं , वे ज्यों के त्यों वानर ही बने रह गए !ऐसा क्यों ? अंततः इन शेष वानरों ने क्या बिगाड़ा था या क्या कमी थी ,जो उन्हें आदमी नहीं बनाया जा सका ?यह प्रश्न अवश्य ही इस प्रचलित धारणा पर एक प्रतिप्रश्न खड़ा अवश्य करता है।
कुल मिलाकर यदि देखा और विचार किया जाए तो निष्कर्ष यही निकलता है कि अपने विकास और विनाश दोनों के लिए वह स्वयं ही उत्तरदायी है।भयंकर बाढ़, भूकंप, अति वृष्टि,अकाल,कोरोना जैसी महामारी, भू-स्खलन आदि सभी विभीषिकाएँ उसी की देन हैं। अपना पल्ला झाड़ कर साफ - सुथरा दिखाने के लिए वह उसका ठीकरा किसी के सिर पर फोड़े ;ये अलग बात है। यह तो मानव स्वभाव है कि काम बने तो श्रेय स्वयं लूटना चाहता है और बिगड़ने पर किसी और के मत्थे मढ़ देता है।
●शुभमस्तु !
01.12.2023●4.00प०मा०
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