सोमवार, 4 दिसंबर 2023

सुख की खोज ● [ व्यंग्य ]

 520/2023


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●© व्यंग्यकार 

● डॉ० भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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           जीवन की सारी भागदौड़ सुख के लिए है।यह अलग बात है कि प्रत्येक जीव के लिए सुख की अलग - अलग परिभाषा है।सबकी अलग - अलग आवश्यकताएँ हैं। कुछ जीवों की आवश्यकताएं बहुत ही सीमित हैं तो कुछ जीवों का जीवन विस्तार ही बहुत बृहत है ,विस्तृत है। उनमें सम्भवतः मनुष्य का जीवन विस्तार अत्यन्त व्यापक परिधि को घेरे हुए है। मनुष्य और पशुओं की तुलना करते हुए कहा गया है: 'आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत पशुभिर्नराणाम्। धर्मो हि तेषांमधिको विशेषः धर्मेणहीना: पशुभिः समानः।।' अर्थात आहार ,निद्रा ,भय और मैथुन मनुष्यों और पशुओं में एक समान (आवश्यकताएं) हैं।किंतु मनुष्यों में एक धर्म ही वह विशेष तत्त्व है ,जो उसे पशुओं से अलग करता है।धर्म से हीन मनुष्य तो पशुओं के समान ही है।

              इन चारों मानवीय विशेषताओं की आजीवन यात्रा इन चारों की पूर्ति की ही है। कितने मनुष्य ऐसे हैं ,जो धर्म का आचरण करते हैं और उसके आचरण और संवर्धन के लिए पशु से इतर जीवन जीते हैं। इसके विपरीत मनुष्य की सारी दौड़भाग एक गोल -गोल रोटी के चक्कर लगाने में ही पूरी हो जाती है।रोटी कमाने के लिए वह खेती,नौकरी,व्यवसाय,चोरी,डकैती,गबन,राहजनी, मिलावटखोरी,नेतागीरी, गुंडागीरी, जेबकटी,स्मगलिंग और न जाने कितने वैध और अवैध धंधे करता है और उन्हें करते -करते जिस संसार को असार कहता भर है , परंतु उसे ही सबसे बड़ा सार मानता है ; उसके लिए ही दिन -रात एक करता है। उसी संसार के लिए न पाप देखता है और न पुण्य ,धर्म देखता है न अधर्म, नीति देखता है न अनीति,वैध देखता है न अवैध -अपनी जी तोड़ शक्ति से करता है।

              मात्र रोटी (आहार)के नाम पर दुनिया का सारा बखेड़ा इस आदमी नामधारी जंतु द्वारा फैलाया गया है।जब रोटी मिल जाती है तो शरीर ढँकने के लिए कपड़े की आवश्यकता सामने आती है।इसलिए तरह- तरह के कपड़े सूती,टेरीन, टेरीकॉट,रेशम, खादी, ऊनी,लैदर,रैग्जीन,कृत्रिम रेशम और अन्य कृत्रिम धागों से बने हुए आवरण की खोज शुरू होती है।कपड़े की डिजाइनें, रंग, आदि का निर्माण विभिन्न कल - कारखानों में होने से उसकी आय के स्रोत बढ़ जाते हैं।जब उसे कपड़े मिल गए तो अपने रहने के लिए बड़े -छोटे भवनों का निर्माण भी वह करने लगता है। इस प्रकार एक आम या खास हर व्यक्ति को इन तीन आवश्यकताओं :रोटी,कपड़ा और मकान की पूर्ति के लिए संघर्ष करना पड़ता है। और इन्हें पूरा करते -करते उसका जीवन पूर्ण हो जाता है। धर्म को बुढ़ापे के लिए छोड़ देता है। किसी -किसी को तो बढ़ावा आने से पहले ही बुलावा आ जाता है। यदि सौभाग्य से उसे बुढ़ापे से दो -चार होना हो पड़ा तो इन्द्रियाँ साथ छोड़ने लगती हैं। पहले तो हाथ पैर ही जवाब दे जाते हैं। न पैरों से चला जाता है और न हाथों से माला ही पकड़ी जाती है।आँखों से दिखता नहीं, कान सुनते नहीं, दाँत बे -दाँत होने लगते हैं। धर्म कैसे हो ?जब धर्म ही नहीं तो मनुष्य और पशु में अंतर ही क्या रह गया ?

            मनुष्य के लिए मान्य चार पुरुषार्थों में जिसे पहले ही स्थान पर रखा गया है ,उस धर्म को वह अंतिम पायदान पर रखकर लतिया धकियाता रहता है। और धकियाते -धकियाते वहाँ जा पहुँचता है कि समय का धक्का उसे ही ऐसा धकियाता है कि वह सीधा परलोक यात्रा पर सिधार जाता है।वह केवल दूसरे पुरुषार्थ अर्थ (रोटी,कपड़ा और मकान) तथा तीसरे पुरुषार्थ काम ( मैथुन तथा अन्य कामनाओं की पूर्ति) में ही जीवन गुजार देता है। इस प्रकार उसके आहार,निद्रा,भय और मैथुन की पूर्ति इन दोनों पुरुषार्थों में सम्पूर्ण हो लेती है। मोक्ष की साधना तो कोई करोड़ों जन में एक दो व्यक्ति ही कर पाते हैं। 

          अर्थ का विस्तार धर्म ,कर्म,पाप , पुण्य,प्रदर्शन,फैशन( क्रीम,इत्र, पाउडर,रूज,काजल,बिंदी,लिपस्टिक,गहने, चूड़ी, साड़ियाँ आदि) के अनन्त कोस तक फैला हुआ है।मनुष्य बस इसी में सिमट -लिपट कर रह गया है।रात -दिन इन्हीं के लिए मारामारी,खून पसीना बहाना, दौड़भाग, नौकरी ,दुकान, ,चोरी ,गबन,राहजनी,नेतागीरी, गुंडागर्दी,जन सेवा,स्वास्थ्य सेवा, कचहरी सेवा, दलाली सेवा,शिक्षा सेवा, कानूनी सेवा,राजस्व सेवा,डाक सेवा , रेल सेवा ,बस परिवहन सेवा ,हवाई सेवा ,ठगी, व्यापार , दूर संचार आदि करता हुआ संसार के मद मधुर सार का रस ग्रहण कर रहा है। इसी में सुख का सार तत्त्व का परिणाम प्राप्त कर रहा है।

                   मनुष्य को धर्म और अध्यात्म में कोई रुचि नहीं है। ये उसके सबसे नीरस और दुखद पहलू हैं।उसकी।मान्यता इन्हें गौण मानने में है। यही कारण है कि लाखों में कोई एक दो ही सच्चे संत बन पाते हैं। मनुष्य गृहस्थ आश्रम को भले ही तप मानता हो ,तीर्थ कहता हो। किन्तु आचरण उसके विपरीत ही करता हुआ देखा जाता है। दूसरों की दृष्टि में महान बनने के लिए वह तिलक ,छाप,माला , शॉल,दुशाला सब कुछ ग्रहण करता है किंतु वहाँ धर्म कम दिखावा अधिक है। फोटो खिंचाने, अखबार की सुर्खियों में आने, टी वी और सोशल मीडिया में कहर ढाने की उसकी मानसिकता आदर्श है। 'राम -राम जपना, पराया माल अपना ' की उक्ति सार्थक करने में आदमी कोई कोर कसर शेष नहीं छोड़ता।

                   मनुष्य की सुख की खोज की अनंत यात्रा है।सारा जीवन इसी में गुजार देना उसके जीवन का परम लक्ष्य है।यह यात्रा किसी गुबरैले ,केंचुए ,कुत्ते, सुअर की यात्रा से कुछ भिन्न नहीं है।अंतर मात्र इतना है कि वह बुद्धिजीवी और वे सब देहजीवी। मनुष्य कोई इनसे कम देहजीवी नहीं है।कर्म की परिणति उसे मनुष्य या मनुष्येतर जन्तु बनाती है।इसलिए आहार निद्रा भय और मैथुन की समानधर्मिता मनुष्यों और पशुओं को एक ही मंच पर लाकर खड़ा कर देती है।अपने अहंकार के वशीभूत वह भले ही उनसे कितना ही श्रेष्ठ क्यों न समझता रहे।मनुष्येतर जीव ढोंग नहीं कर सकते, बस यही खग - पशुओं और मनुष्यों में अंतर है। न वहाँ धर्म है न यहाँ धर्म बचा है। यहाँ तो शर्म भी नहीं बची कि वह चुल्लू भर जल में डूब सके । यदि चलते -चलते उसका कदम फिसल जाता है ,तो यही कहेगा कि मैं जान बूझकर नाटक कर रहा था। 

 ●शुभमस्तु ! 

 04.12.2023●9.00प०मा० 

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