521/2023
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●© व्यंग्यकार
● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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पहले ये कहावत धोबी के कुत्ते के लिए प्रसिद्ध थी कि 'धोबी का कुत्ता घर का न घाट का।' किन्तु अब ये कहावत भले ही प्रसिद्ध न हुई हो पर आदमी पर शत प्रतिशत लागू हो रही है। यदि आप इस तथ्य को भली भाँति समझ लेंगे तो इसकी ख्याति भी बढ़ जाएगी।हम और आप जैसे लोग ही इसकी ख्याति को विस्तार भी देने लगेंगे। यदि आपको मेरी बात का विश्वास नहीं हो रहा हो तो घर से बाहर निकल कर देख लीजिए।
आप आदमी के जन्म से ही ले लीजिए। पहले आदमी औरत का बच्चा अर्थात हम और आप जैसे प्राणी कहाँ पैदा होते थे?आप कहेंगे कि घर में।अपने घर में हम सब का जन्म होता था ,जिसे सौरी घर या प्रसव कक्ष कहते थे। और नए जमाने के बच्चे कहाँ और कैसे पैदा हो रहे हैं ? आप कहेंगे :नर्सिंग होम में,हॉस्पिटल में, बस में ,ट्रेन में ,हवाई जहाज में और कभी - कभी तो अस्पताल के गेट पर , सड़क पर या रिक्शे में या ऑटों रिक्शे में । यदि प्रसूता या उसके पति का स्तर ऊँचा हुआ तो कार या एम्बुलेंस में भी पैदा होने का जुगाड़ कर लिया जाता है। कुल मिलाकर एक शब्द में कहें कि तब बच्चे घर में पैदा होते थे और अब घर के बाहर पैदा हो रहे हैं।
जब पैदा हुए हैं तो कभी न कभी बीमार भी होंगे ही। पहले बीमार होने पर दादी माँ के नुस्खे या हकीम वैद्यों के चूरन चटनी ही हमें नीरोग करने के लिए पर्याप्त थे।और दो चार दिन गर्म पानी पीकर या लंघन करके अथवा रसोई घर के लोंग, इलायची,जीरा,काला नमक,हींग, मीठा तेल, देशी घी,दाल चीनी आदि से ही ठीक हो जाया करते थे। अब जब आदमी के स्तर में इज़ाफ़ा हुआ तो घर के ये सभी इंतजाम निरर्थक हो गए और सीधे अस्पताल में भर्ती करना अनिवार्य हो गया।अर्थात इलाज भी घर से बाहर। अब के पैदा होने वाली संतति के लिए घर भी किसी काम नहीं आया।वे बाहर से ही उपचार लेकर स्वस्थ होते हैं।
जो इस धरती पर आया है ,उसे जाना भी है। यह एक अनिवार्य सत्य है। यह सत्य तब भी सत्य था और आज भी सत्य ही है।तब के और अब के जैसे आने में अंतर आया है ,वही अंतर जाने में भी आ गया है। पहले लोग घर की चार दीवारी में चारपाई पर पड़े पड़े ही अंतिम साँस लेकर प्रस्थान कर जाते थे। किंतु आजकल के समय में दुनिया से विदा होने के तरीकों और स्थानों में भी बड़ा बदलाव आया है।अब तो अस्पताल में इलाज कराते -कराते या तो ऑपरेशन टेबिल पर आखिरी साँस छोड़ देते हैं अथवा भर्ती होने के बाद किसी सफेद चादर से आवृत बैड पर।कोई सड़क पर दुर्घटना में चला जाता है तो कोई आत्मघात कर विदा हो लेता है। विष ,आग,रेल की पटरी आदि अनेक ऐसे साधन या उपसाधन हैं ,जो घर की दीवारों से बाहर के ही हैं।
जन्म और अवसान के बाद किंचित चर्चा इन दोनों के बीच के पलों की भी कर लें तो समीचीन होगा। मनुष्य के जीवन का एक सुनहरा काल विवाह संस्कार का माना जाता है। पहले विवाह भी घर पर ही चार और एक पाँच बाँस का मंडप सजा कर अग्नि के सात फेरे ले लिए जाते थे। बस हो गया विवाह। बारात किसी खेत में या किसी बरगद,आम या नीम,शीशम के पेड़ के नीचे ,चौपाल आदि पर रोक दी जाती थी। और विवाह की सारी रस्में घर के अंदर ही सम्पन्न होती थीं।इसके विपरीत आजकल जमाना प्रदर्शन का अधिक और वास्तविकता का कम रह जाने से अलग बने हुए मैरिज होम , विवाह घरों ,गार्डनों, वाटिकाओं आदि में विवाह की रस्में पूरी की जाती हैं। अर्थात यह सब भी घर के बाहर ही होता है।
इस प्रकार आज के आदमी का सब कुछ घर से बाहर ही सम्पन्न हो रहा है।अब वह घर का रहा न घाट का।जीने से मरने तक का सारा इंतजाम घर से बाहर ही है। फिर ये घर किसके लिए ,किस काम के लिए हैं।जब घर , घर ही नहीं रहे तो वे फ्लेट,मकान या किसी अन्य रूप में परिवर्धित हो गए। घर की संस्कृति मर चुकी है। इसीलिए अब लोगों में घर के प्रति जो आत्मीयता का भाव पहले होता था ,अब नहीं रहा है। घर मकान हो गए।आदमी, आदमी न रहा ,फ्लैट हो गया !अपने अहं में ग्लैड हो गया।
●शुभमस्तु !
05.12.2023● 2.00प०मा०
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