सोमवार, 18 दिसंबर 2023

राजनीति के रंग ● [ दोहा गीतिका ]

 542/2023

 

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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप'शुभम्'

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छाई  चारों   ओर  है,   राजनीति  की   ऊल।

किंतु नहीं होती कभी,सबके हित अनुकूल।।


मुख से  कहते  है बुरी,राजनीति सब   लोग,

फिर भी  गोदी  में भरें,ज्यों गुलाब के  फूल।


राजनीति  के  संग  से, धर्म धूसरित   नित्य,

धर्मवीर  जो  भी  बने,  ओढ़ा   वही   दुकूल।


शिक्षालय  की  सीख  में, राजनीति  का  मैल,

रँगता  अपने  रंग  में,  उड़े    ज्ञान  की    धूल।


राजनीति   का   रंग  है,  जातिवाद भी   एक,

मानवता  के   बाग   में, उगने   लगे   बबूल।


राजनीति   को   चाहिए, नीति   न शिक्षाचार,

खूँटी  पर    टाँगे  हुए,  सत्पथ   श्रेष्ठ   उसूल।


दंभ,द्वेष, छल ,छद्म   का, राजनीति  है  कोष,

उलटे   ही   सब  काम हों,चुभें बाद  में  शूल।


राजनीति  चाहे  नहीं, करना देश -   विकास,

यदि  विकास  ही हो  गया,जाएँगे जन भूल।


'शुभम्'  भुलावे  में रखो,  उलझाकर   अन्यत्र,

राजनीति   का   मंत्र है, उलझें जन   आमूल।


●शुभमस्तु !

18.12.2023●7.45आ०मा०

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